भगवान बिरसा मुंडा
एक सामान्य गरीब
परिवार में जन्म लेकर, अभावों के बीच
रहकर भी किसी का भगवान हो जाना कोई सामान्य बात
नहीं है। लेकिन मात्र 25 वर्ष के जीवन
काल में तमाम अभाव, मानसिक और शारीरिक यातनाओं
के बीच अपने बचपन से लेकर भगवान बनने तक की इस यात्रा को बिरसा मुंडा ने पूरा किया। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में उन्होंने आदिवासी
समाज की दशा और दिशा बदलकर नए सामाजिक युग का
सूत्रपात किया तो साथ ही, शौर्य की नई गाथा
भी लिखी। आदिवासियों ने भी उन्हें सिर्फ नायक नहीं,
बल्कि धरती आबा यानी धरती के पिता के साथ भगवान
का दर्जा भी दिया।
जन्म:15 नवंबर 1875 | मृत्यु: 9 जून 1900
जल, जंगल और जमीन को लेकर आदिवासियों का संघर्ष
सदियों पुराना है। 19वीं सदी के
उत्तरार्ध में भी जब भारत
गुलामी का दंश झेल रहा था, इसी संघर्ष के
बीच 15 नवंबर 1875 को तब के रांची जिले के उलिहातु
गांव में सुगना मुंडा के घर एक बालक का जन्म हुआ। कहते हैं, उस दिन बृहस्पतिवार था,
इसलिए बालक का नाम बिरसा रखा गया। घर की स्थिति
बहुत अच्छी नहीं थी, बावजूद इसके पिता
ने बिरसा को पढ़ने के लिए मिशनरी स्कूल भेजा। बात 1882 की है। एक तरफ गरीबी थी और
दूसरी तरफ अंग्रेजों का लाया इंडियन फॉरेस्ट एक्ट। इस एक्ट का दुरुपयोग कर आदिवासियों से
उनके जंगल के अधिकार को छीनने की शुरुआत हुई।
साल 1890 में 15 वर्ष की आयु में अपनी शिक्षा छोड़ने के बाद बालक बिरसा ने समग्र विचारों को विस्तार से समझने
का संकल्प किया। इसके बाद आने वाले 5 साल (1890-95 तक) बालक बिरसा
ने धर्म, नीति, दर्शन, वनवासी रीति रिवाज,
मुंडानी परंपराओं का गहराई से अध्ययन किया।
इसके साथ ही ईसाई धर्म और
ब्रिटिश सरकार की नीतियों का भी गहराई से अध्ययन किया।
अध्ययन के सार
रूप में उन्होंने कहा
- 'साहब-साहब टोपी एक!'
बिरसा ने महसूस किया कि आचरण के धरातल पर आदिवासी समाज अंधविश्वास
में फंसा है तो आस्था के मामले में वह भटका हुआ है। धर्म के बिंदु पर आदिवासी कभी मिशनरियों
के प्रलोभन में आ जाते हैं तो कभी ढकोसलों को ही ईश्वर मानने
लगते हैं। इसके ऊपर था,
जमींदारों और ब्रिटिश शासन का शोषण। बिरसा ने
तीन स्तरों पर आदिवासी समाज को संगठित किया। पहला, अंधविश्वास और ढकोसलों से दूर होकर स्वच्छता व
शिक्षा का रास्ता।
दूसरा, सामाजिक स्तर के साथ आर्थिक स्तर पर सुधार। इसके लिए बिरसा ने नेतृत्व की कमान संभाली और ‘बेगारी प्रथा’ के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया। तीसरा, राजनीतिक स्तर पर आदिवासियों को
अधिकारों को लेकर सजग करना। आदिवासियों को बिरसा मुंडा के रूप में अपना नायक मिला।
बिरसा ने
अंग्रेजों द्वारा लागू की गई जमींदारी और राजस्व-व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई छेड़ी।
बिरसा ने
सूदखोर-महाजनों के खिलाफ भी बगावत की। ये महाजन कर्ज के बदले आदिवासियों की जमीन
पर कब्जा कर लेते
थे। बिरसा मुंडा के निधन तक चला ये विद्रोह 'उलगुलान' नाम से जाना जाता है। अगस्त 1897 में बिरसा ने अपने साथ करीब 400 आदिवासियों को लेकर एक थाने पर हमला बोल दिया। जनवरी 1900 में मुंडा और अंग्रेजों के बीच आखिरी लड़ाई
हुई। रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर हुई इस लड़ाई में
हजारों आदिवासियों ने अंग्रेजों का सामना किया, लेकिन तोप और बंदूकों के सामने तीर-कमान जवाब
देने लगे। बहुत से लोग मारे गए और कई लोगों को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया।
बिरसा पर
अंग्रेजों ने 500 रुपये का इनाम
रखा था। उस समय के हिसाब से ये रकम काफी ज्यादा थी। कहा
जाता है कि बिरसा की ही पहचान के लोगों ने 500 रुपये के लालच में उनके छिपे होने की सूचना
पुलिस को दे दी। आखिरकार बिरसा चक्रधरपुर से गिरफ्तार कर लिए गए। अंग्रेजों ने उन्हें रांची की
जेल में कैद कर दिया। कहा जाता है कि यहां उनको धीमा जहर दिया गया। इसके चलते 9 जून 1900 को वे शहीद हो गए। वह आज भी हमारी
आस्था में, हमारी भावना में हमारे
भगवान के रूप में उपस्थित हैं।HJK
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