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पति कितना ज़िम्मेदार?ससुराल में यदि प्रताड़ित होती है पत्नी

 

दहेज प्रताड़ना के एक मामले में पति की अग्रिम ज़मानत की याचिका को ख़ारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि ससुराल में पत्नी को पहुँचाई गई चोटों के लिए प्राथमिक तौर पर पति ज़िम्मेदार होता है, भले ही चोटें रिश्तेदारों की वजह से आई हों। 

न्यूज़  टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, सुप्रीम कोर्ट में जिस मामले की सुनवाई चल रही थी उसमें पत्नी ने अपने पति, सास और ससुर के ख़िलाफ़ दहेज की माँग पूरी ना करने के कारण बुरी तरह पीटने का आरोप लगाया है। ये शिकायत पंजाब के लुधियाना में जून 2020 में दर्ज की गई थी। 


महिला का आरोप है कि उसे पति और ससुर ने क्रिकेट बैट से बुरी तरह पीटा और उसके मुंह पर तकिया रखकर उसका दम घोटने की कोशिश की. इसके बाद उन्हें सड़क पर फेंक दिया गया और उनके पिता और भाई उन्हें लेकर गए.महिला की मेडिकल रिपोर्ट में भी शरीर पर कई जगह चोटें आने की पुष्टि हुई है। जिसमें एक बड़े और ठोस हथियार से मारने की बात भी सामने आई,पति ने ये कहते हुए अग्रिम ज़मानत की याचिका दायर की थी कि पत्नी की बैट से पिटाई उसने नहीं बल्कि उसके पिता ने की थी। 

लेकिन, मुख्य न्यायाधीश एसए बोबड़े की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि ये मायने नहीं रखता कि आपने या आपके पिता ने कथित तौर पर बैट का इस्तेमाल किया था।  अगर किसी महिला को ससुराल में चोट पहुँचाई जाती है तो उसकी प्राथमिक ज़िम्मेदारी पति की होती है। कोर्ट ने पति की याचिका ख़ारिज कर दी.इस मामले में पति की प्राथमिक ज़िम्मेदारी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा वो मौजूदा क़ानून से अलग है।  ऐसे में सवाल उठते हैं कि ये मात्र एक टिप्पणी या अवलोकन था जो केवल इस मामले तक ही सीमित है या इसके आगामी प्रभाव भी हो सकते हैं।

जाने धारा 304बी,

इस पर दिल्ली हाइकोर्ट में वकील साहिबा  कहती हैं कि शादी के बाद पत्नी के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी पति की तय की गई है, लेकिन, अगर पत्नी पर अत्याचार होता है तो पति कितना ज़िम्मेदार है ये इस बात पर निर्भर करता है कि अपराध क्या है, किस क़ानून के तहत दर्ज है और मामले के तथ्य क्या हैं,

304बी के तहत दहेज़ हत्या का मामला दर्ज होता है- इस क़ानून के तहत अगर शादी के सात सालों के अंदर महिला की मौत हो जाती है जिसके पीछे अप्राकृतिक कारण होते हैं और मृत्यु से पहले उसके साथ दहेज़ के लिए क्रूरता या उत्पीड़न हुआ हो, तो उस मौत को दहेज़ हत्या मान लिया जाएगा.वो  कहती हैं, “अगर 304बी के तहत शिकायत में विशेष तौर पर किसी का नाम ना लिखा हो तो पति और ससुराल वालों का या जो भी उस घर में रहता है, उनका नाम इसमें अपने आप शामिल हो जाएगा. इसमें पति को भी ज़िम्मेदार माना गया है. भले ही उसने उत्पीड़न किया हो या नहीं.”लेकिन, अगर मृतक पत्नी के परिवारजन अपनी शिकायत में ससुराल पक्ष पर आरोप लगाते हैं लेकिन पति पर नहीं तो पति को अपराध में शामिल नहीं माना जाएगा. परिकल्पना का खंडन तब हो जाता है जब आपकी कोई विशेष शिकायत होती है जो प्रकल्पना के विपरीत हो। 

इस धारा के तहत एक शादी में पत्नी की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी हमेशा पति पर ही डाली गई है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 113बी में भी यही परिकल्पना की गई है, इसमें पति और उसके परिवार को खुद को निर्दोष साबित करना पड़ता है। 

लेकिन, आईपीसी की धारा 498ए में इस तरह की प्रकल्पना नहीं की गई है।  दहेज़ प्रताड़ना से बचाने के लिए 1986 में आईपीसी की धारा 498ए का प्रावधान किया गया था।  अगर किसी महिला को दहेज़ के लिए मानसिक, शारीरिक या फिर अन्य तरह से प्रताड़ित किया जाता है तो महिला की शिकायत पर इस धारा के तहत केस दर्ज होता है।


घरेलू हिंसा से जुड़ा और क़ानून-

 घरेलू हिंसा से जुड़ा एक और क़ानून है, ‘घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005’. इसमें शारीरिक, आर्थिक, भावनात्मक और मानसिक हिंसा के ख़िलाफ़ क़ानून बनाया गया. इसके तहत केवल महिला ही शिकायत कर सकती है।  इस क़ानून में 304बी की तरह कोई प्रकल्पना नहीं की गई है कि पत्नी के साथ होने वाले अत्याचार और प्रताड़ना के लिए पति ही ज़िम्मेदार है। 

अगर पत्नी घरेलू हिंसा के मामले में ससुराल के सदस्यों को अभियुक्त बनाती है लेकिन पति को नहीं तो पति इस मामले में कोई पक्ष नहीं बनाया जाएगा। 

लेकिन, इसमें एक और बात ध्यान रखने वाली है. अगर पत्नी ये कहती है कि पति ने शारीरिक रूप से तो प्रताड़ित नहीं किया लेकिन उसे इस प्रताड़ना की जानकारी थी।  ऐसे में पति पर मानसिक या भावनात्मक प्रातड़ना का मामला बनता है। घरेलू हिंसा के मामलों में सबसे पहले ये देखा जाता है कि क्या जो हिंसा हुई है वो एक ही घर या एक ही छत के नीचे हुई है। अगर पति-पत्नी और सास-ससुर एक ही घर या एक ही छत के नीचे नहीं रहते हैं तो मामले को घरेलू हिंसा के तहत नहीं मान सकते. घरेलू हिंसा क़ानून में आने के बाद ही किसी अन्य की ज़िम्मेदारी तय होती है। 

हालांकि,आईपीसी 498ए में ऐसा नहीं होता. इसमें आप साथ रहते हों या नहीं लेकिन अगर लड़की प्रताड़ित है और वो जिनके भी नाम लेती है उन सब पर मामला चलाया जाता है।

क्या है सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के मायने

 सुप्रीम कोर्ट की जिस टिप्पणी की बात की जा रही है उसका ज़िक्र इस मामले के आदेश में नहीं है. इसलिए अगर ऐसी टिप्पणी की गई है तो वो केवल इसी मामले पर लागू होगी।  उसका मौजूदा किसी भी क़ानून पर असर नहीं पड़ेगा, कई बार कोर्ट किसी मामले के तथ्यों को देखते हुए अलग-अलग टिप्पणियां करते है। हालांकि, अगर इस टिप्पणी का कोई व्यापक प्रभाव होता या मौजूदा क़ानून के संदर्भ में कही गई होती तो उसके फायदे और नुक़सान दोनों हो सकते थे। 

वकील साहिबा बताती हैं, “ससुराल में महिला को पहुंचाई गई चोटों की प्राथमिक ज़िम्मेदारी अगर हर मामले में पति पर मानी जाती है तो उससे समस्या ये होगी कि अगर पत्नी केवल ससुराल वालों पर प्रताड़ना का आरोप लगाती है लेकिन पति पर नहीं तो भी पति आरोपी माना जाएगा. पत्नी उसे नहीं बचा पाएगी. क्योंकि पत्नी की सुरक्षा की प्राथमिक ज़िम्मेदारी पति पर आ जाएगी। 

“वहीं, इससे मदद ये मिलेगी कि पत्नी को साबित नहीं करना पड़ेगा कि पति भी प्रताड़ना में शामिल है।  तब साबित करने की पूरी ज़िम्मेदारी पति की होगी।  कई मामलों में पति कहते हैं कि उन्हें प्रताड़ना के बारे में नहीं पता था।  पति और पत्नी दोनों को अपनी बात साबित करनी होती है और मामले बहुत लंबे खिंच जाते हैं,हालांकि, ये सब बहुत दूर की बात है।

परंतु  हर मामले में प्राथमिक तौर पर पति को ज़िम्मेदार मानना मुश्किलें खड़ी कर सकता है।  जैसे अगर थप्पड़ ससुर ने मारा है और पति घर पर नहीं है तो आप कैसे कह सकते हैं कि पति इसके लिए प्राथमिक तौर पर ज़िम्मेदार है।  इसलिए कोर्ट ने जो कहा है वो सिर्फ़ उसी मामले के लिए कहा गया है। 


पति की ज़िम्मेदारी है -

महिला अधिकारों के लिए और उन पर हिंसा के ख़िलाफ़ काम करने वाली संस्था स्वयं की निदेशक  कहती हैं कि शादीशुदा महिला तो अपने पति से ही अधिकार मांगेगी चाहे भरण-पोषण का हो या घर में सुरक्षित रहने का. हमारे क़ानून में पति की जिम्मेदारी भी तय की गई है. उनके ख़िलाफ़ मामले दर्ज होते हैं लेकिन, समस्या क़ानून को लागू करने की है।वह बताती हैं, “भारत में महिलाओं के लिए क़ानून तो अच्छे हैं. महिला अधिकारों की लंबी लड़ाई के बाद ये क़ानून आए हैं लेकिन इनका अनुपालन उतने बेहतर तरीके से नहीं हो पाता। जैसे अदालत से भरण-पोषण का आदेश मिलने के बाद भी जब पति रखरखाव की रकम देने से इनकार करता है तो पत्नी को कोर्ट के कई चक्कर लगाने पड़ते हैं। 

घरेलू हिंसा क़ानून में कहा गया है कि तीन दिनों के अंदर मामले की सुनवाई होगी और 60 दिनों के अंदर अंतिम आदेश आएगा. लेकिन, असल में तो पहली सुनवाई के लिए ही महीनों लग जाते हैं. अंतिम आदेश आने में सालों निकल जाते हैं। वह कहती हैं कि क़ानून के स्तर पर ज़िम्मेदारियां तय होने के बाद भी महिलाएं संघर्ष कर रही हैं।  उन्हें मेडिकल टेस्ट की जानकारी नहीं होती. वो समय रहते टेस्ट नहीं करातीं तो हिंसा के सबूत ही नहीं मिल पाते. मुकदमे लंबे चलते हैं इसलिए वो थककर पीछे ही हट जाती हैं। इसलिए क़ानून को तो पुख़्ता बनाया ही जाना चाहिए लेकिन उसके अनुपालन पर भी ध्यान देना चाहिए। 


दूसरा पहलू -(वाद जन्म का कारण )

1-     यदि पत्नी सास ससुर को पति के सामने अनाप सनाप कहे तो -

2-यदि पत्नी पति की हैसियत से ज्यादा शपिंग की मांग करे तो -

3-  यदि पत्नी पर पुरूष के सोच मे रहे तो -

लेख पढ़ने वालो से अनुरोध 3 कारणो पर कौन सी धारा आई पी सी की बनती  है हमारी वैब कमेन्ट मे बताने का कष्ट करे ।                          


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