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जयप्रकाश नारायण बार-बार सरदार पटेल पर गांधी की हत्या को लेकर उंगली उठाते थे, आख़िरी दिनों में पटेल भी गांधी से इतने दुखी क्यों थे?


10 फ़रवरी 1949 को दिल्ली के लाल क़िले के आसपास आवाजाही रोक दी दी गई थी. सुरक्षा बलों की भारीतैनातीथी. महात्मा गांधी की हत्या पर अदालत का फ़ैसला आने वाला था. लाल क़िले के भीतर ही विशेष अदालतबनाईगई थी.ठीक 11.20 बजे नाथूराम गोडसे के साथ आठ अन्य अभियुक्त कोर्ट रूम में लाए गए. केवल सावरकरकेचेहरे पर गंभीरता थी जबकि नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे और विष्णु करकरे मुस्कुराते हुए आए.

ब्लैक सूट में जज आत्माचरण कोर्ट रूम में 11.30 बजे पहुँचे. जज ने बैठते ही नाथूराम गोडसे का नाम पुकारा, जिस पर गोडसे खड़े हो गए. फिर बारी-बारी से सभी का नाम बोला गया. जज आत्माचरण ने गांधी की हत्या में नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फाँसी की सज़ा सुनाई. विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किस्टया, गोपाल गोडसे और दत्तात्रेय परचुरे को आजीवन क़ैद की सज़ा सुनाई गई। जज ने सावरकर को बेगुनाह क़रार दिया और उन्हें तत्काल रिहा करने का आदेश दिया.फ़ैसला सुनने के बाद, कटघरे से निकलते हुए गोडसे समेत सभी ने 'हिन्दू धर्म की जय, तोड़ के रहेंगे पाकिस्तान और हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान' के नारे लगाए. यह कोई पहली बार नहीं था जब गोडसे कोर्ट रूम में नारे लगा रहे थे. लाल क़िले में सुनवाई के दौरान आठ नवंबर 1948 को गवाही पूरी होने के बाद कोर्ट ने नाथूराम गोडसे से पूछा कि वो कुछ कहना चाहते हैं? इस पर गोडसे ने कहा कि वो 93 पन्ने का अपना बयान पढ़ना चाहते हैं। गोडसे ने 10:15 बजे से बयान पढ़ना शुरू किया. बयान पढ़ने से पहले उन्होंने बताया कि लिखित बयान छह हिस्सों में है. गोडसे ने कहा कि पहले हिस्से में साज़िश और उससे जुड़ी चीज़ें, दूसरे हिस्से में गांधी की शुरुआती राजनीति, तीसरा हिस्सा गांधी की राजनीति के आख़िरी चरण, चौथा हिस्सा गांधीजी और भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई, पाँचवा हिस्सा आज़ादी के सपनों का बिखरना और आख़िरी हिस्सा 'राष्ट्र विरोधी तुष्टीकरण' की नीति है। 

गोडसे ने मीडिया से अपील की कि उनके बयान को कोई बिना संदर्भ के न छापे. 45 मिनट पढ़ने के बाद गोडसे कोर्ट रूम में ही चकराकर गिर गए. कुछ देर बाद उन्होंने फिर से लिखित बयान पढ़ना शुरू किया और पूरा पढ़ने में पाँच घंटे का वक़्त लगा. इस दौरान वो बार-बार पानी पीते रहे. गोडसे ने अपने बयान का अंत 'अखंड भारत अमर रहे' और 'वंदे मातरम' के नारे से किया। गोडसे के इस बयान को चीफ़ प्रॉसिक्यूटर ने कोर्ट के रिकॉर्ड से हटाने का आग्रह किया और कहा कि ये पूरी तरह से महत्वहीन हैं. इस पर गोडसे ने कोर्ट में कहा कि भारत की वर्तमान सरकार पर उन्हें भरोसा नहीं है क्योंकि यह सरकार 'मुस्लिम-परस्त' है. हालाँकि जज आत्माचरण ने गोडसे के बयान को रिकॉर्ड से हटाने से इनकार कर दिया और कहा कि अदालतों में लिखित बयान स्वीकार किए जाते हैं.उस दिन भी कोर्ट रूम खचाखच भरा हुआ था। नौ नवंबर 1948 को जज आत्माचरण ने नाथूराम से 28 सवाल पूछे. एक सवाल के जवाब में गोडसे ने कहा था, 'हाँ, गांधीजी को गोली मैंने मारी थी. गोली मारने के बाद एक आदमी ने मुझे पीछे से सिर पर मारा और ख़ून निकलने लगा. मैंने उससे कहा कि जो मैंने प्लान किया था वही किया और मुझे कोई पछतावा नहीं है. उसने मेरे हाथ से पिस्टल छीन ली. पिस्टल ऑटोमैटिक थी और डर था कि ग़लती से किसी और पर न चल जाए. उस आदमी ने मेरे ऊपर पिस्टल भिड़ा दी और कहा कि तुम्हें गोली मार दूँगा. मैंने उससे कहा कि मुझे गोली मार दो. मैं मरने के लिए तैयार हूँ। 


महात्मा गांधी के पड़पोते और गांधी हत्याकांड पर एक प्रामाणिक किताब (लेट्स किल गांधी) लिखने वाले तुषार गांधी कहते हैं, "यह गोडसे का कोर्ट रूम ड्रामा था. उसने सोचा था कि वो बापू की हत्या करके नायक बन जाएगा और उसकी करनी से हिन्दू सहमत हो जाएँगे. जब ऐसा होता हुआ नहीं दिखा तो उसने कोर्ट रूम में नाटकीयता पैदा करने की कोशिश की".एक बहुत ही मनहूस दिन. नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे और विष्णु करकरे दिल्ली रेलवे स्टेशन के रेस्तराँ से नाश्ता करके बिड़ला मंदिर के लिए निकल गए। गोडसे ने बिड़ला मंदिर के पीछे के जंगल में तीन या चार राउंड फ़ायर करके पिस्टल को परखा. दिन के 11.30 बजे गोडसे पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन निकल गए और करकरे मद्रास होटल. दोपहर बाद दो बजे करकरे पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचे. वहाँ गोडसे और आप्टे से मिले.शाम के 4.30 बजे रेलवे स्टेशन से तांगे से तीनों बिड़ला मंदिर के लिए निकल गए. गोडसे ने बिड़ला मंदिर के पीछे लगी शिवाजी की मूर्ति के दर्शन किए. आप्टे और करकरे वहां से क़रीब चार किलोमीटर दूर बिड़ला भवन चले गए, बिड़ला भवन अलबुकर्क रोड पर था, जिसे आज तीस जनवरी मार्ग के नाम से जाना जाता है. जब गोपाल गोडसे और विष्णु करकरे पुणे पहुँचे तो उनके दोस्तों ने किसी नायक की तरह उनका स्वागत करने का फ़ैसला किया. इसके लिए एक कार्यक्रम आयोजित करने की योजना बनी, जिसमें इनके कारनामे यानी गांधी की हत्या में इनकी भूमिका की सराहना और उसका उत्सव मनाने का फ़ैसला हुआ। 12 नवंबर 1964 को सत्यविनायक पूजा आयोजित हुई. इसमें आने के लिए मराठी में लोगों को आमंत्रण पत्र भेजा गया, जिस पर लिखा गया था कि देशभक्तों की रिहाई की ख़ुशी में इस पूजा का आयोजन किया गया है और आप सभी आकर इन्हें बधाई दें. इस आयोजन में क़रीब 200 लोग शरीक हुए थे. इस कार्यक्रम में नाथूराम गोडसे को भी देशभक्त कहा गया। 

सबसे हैरान करने वाला रहा लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के नाती जीवी केतकर का बयान. जीवी केतकर उन दो पत्रिकाओं- 'केसरी' और 'तरुण भारत' के संपादक रहे थे, जिन्हें तिलक ने शुरू किया था. केतकर हिंदू महासभा के विचारक के तौर पर जाने जाते थे। केतकर ही इस आयोजन की अध्यक्षता कर रहे थे. पूजा के बाद गोपाल गोडसे और करकरे ने जेल के अनुभवों को साझा किया और इसी दौरान केतकर ने कहा कि उन्हें पहले से ही गांधी की हत्या की योजना पता थी और ख़ुद नाथूराम गोडसे ने ही बताया था। तिलक के नाती जीवी केतकर ने कहा, "कुछ हफ़्ते पहले ही गोडसे ने अपना इरादा शिवाजी मंदिर में आयोजित एक सभा में व्यक्त कर दिया था. गोडसे ने कहा था कि गांधी कहते हैं कि वो 125 तक ज़िंदा रहेंगे लेकिन उन्हें 125 साल तक जीने कौन देगा? तब हमारे साथ बालुकाका कनेटकर भी थे और गोडसे के भाषण के इस हिस्से को सुनकर परेशान हो गए थे. हमने कनेटकर को आश्वस्त किया था कि वो नाथ्या (नाथूराम) को समझाएँगे और ऐसा करने से रोकेंगे. मैंने नाथूराम से पूछा था कि क्या वो गांधी को मारना चाहता है? उसने कहा था कि हाँ, क्योंकि वो नहीं चाहता कि गांधी देश में और समस्याओं का कारण बनें". केतकर का यह बयान प्रेस में आग की तरह फैला.

दैनिक अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' ने जीवी केतकर का इंटरव्यू कर विस्तार से रिपोर्ट छापी. रिपोर्ट में वो तस्वीर भी छपी जिसमें नाथूराम गोडसे की तस्वीर को माला पहनाकर श्रद्धांजलि दी गई थी और उन्हें देशभक्त बताया गया था. जीवी केतकर ने इंडियन एक्सप्रेस से 14 नवंबर 1964 को कहा था, "तीन महीने पहले ही नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या योजना मुझसे बताई थी. जब मदनलाल पाहवा ने 20 जनवरी 1948 को गांधी जी की प्रार्थना सभा में बम फेंका तो बड़गे उसके बाद मेरे पास पुणे आया था और उसने भविष्य की योजना के बारे में बताया था. मुझे पता था कि गांधी की हत्या होने वाली है. मुझे गोपाल गोडसे ने इस बारे में किसी को बताने से मना किया था".इसके बाद केतकर को गिरफ़्तार कर लिया गया. गोपाल गोडसे को भी फिर से गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया गया. इसके बाद ही गांधी की हत्या की जाँच के लिए कपूर कमिशन का गठन किया गया. कहा गया कि गांधी की हत्या सुनियोजित और साज़िश से की गई है इसलिए इसकी मुकम्मल जाँच होनी चाहिए और पता करना चाहिए कि इसमें और कौन-कौन लोग शामिल थे. 

गांधी की हत्या के तात्कालिक कारण13 जनवरी, 1948 को दिन में क़रीब 12 बजे महात्मा गांधी दो माँगो को लेकर भूख हड़ताल पर बैठ गए. पहली माँग थी कि पाकिस्तान को भारत 55 करोड़ रुपए दिए जाएं और दिल्ली में मुसलमानों पर होने वाले हमले रुकें. गांधी की भूख हड़ताल के तीसरे दिन यानी 15 जनवरी को भारत सरकार ने घोषणा की कि वो पाकिस्तान को तत्काल 55 करोड़ रुपए देगी। 

"ज़ाहिर है, बापू पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देने की माँग भी कर रहे थे लेकिन उनका लक्ष्य भी यही था कि सांप्रदायिक सौहार्द क़ायम हो "
तुषार गांधी

इस घोषणा से गांधी के ख़िलाफ़ उग्रपंथी हिंदू बहुत नाराज़ हो गए. ख़ास तौर पर हिन्दू महासभा. महात्मा गांधी ने प्रार्थना के बाद दिए भाषण में कहा, "मुसलमानों को उनके घरों से बेदख़ल नहीं किया जाना चाहिए. हिन्दू शरणार्थियों को किसी भी तरह की हिंसा में शामिल नहीं होना चाहिए जिसकी वजह से मुसलमान अपना घर-बार छोड़ने पर मजबूर हों। हालाँकि तुषार गांधी का कहना है कि बापू की भूख हड़ताल का मुख्य मक़सद पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलवाना नहीं था बल्कि सांप्रदायिक हिंसा को रोकना और सांप्रदायिक सद्भावना क़ायम करना था. वो कहते हैं, "ज़ाहिर है, बापू पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देने की माँग भी कर रहे थे लेकिन लक्ष्य था कि सांप्रदायिक सौहार्द क़ायम हो".क्या नेहरू और पटेल पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए नहीं देना चाहते थे? इसके जवाब में तुषार गांधी कहते हैं, "कैबिनेट का फ़ैसला था कि जब तक दोनों देशों के बीच विभाजन का मसला सुलझ नहीं जाता है तब तक भारत पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए नहीं देगा. हालाँकि विभाजन के बाद दोनों देशों में संधि हुई थी कि भारत पाकिस्तान को बिना शर्त के 75 करोड़ रुपए देगा. इनमें से पाकिस्तान को 20 करोड़ रुपए मिल चुके थे और 55 करोड़ बकाया था. पाकिस्तान ने ये पैसे माँगना शुरू कर दिया था और भारत वादाख़िलाफ़ी नहीं कर सकता था. बापू ने कहा कि जो वादा किया है उससे मुकरा नहीं जा सकता. अगर ऐसा होता तो द्विपक्षीय संधि का उल्लंघन होता".सरकार ने गांधी की भूख हड़ताल के दो दिन बाद ही पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देने का फ़ैसला किया और इस फ़ैसले के साथ ही गांधी उग्र हिन्दुओं की नज़र में विलेन बन चुके थे. सरदार पटेल भी गांधी से सहमत नहीं थे कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिए जाए. कपूर कमिशन की जाँच में सरदार पटेल की बेटी मणिबेन पटेल गवाह नंबर 79 के तौर पर पेश हुई थीं। 


पटेल पर ही क्यों उठे सवाल-

मणिबेन ने कपूर कमिशन से कहा था, "मुझे याद है कि मेरे पिता पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देने को लेकर महात्मा गांधी से सहमत नहीं थे. मेरे पिता का मानना था कि अगर पाकिस्तान को यह रक़म दी जाती है तो लोग इससे नाराज़ होंगे और पाकिस्तान के साथ भी हमारी समझ यह है कि सारे मुद्दों के समाधान के बाद ही यह रक़म दी जाए। 

मणिबेन पटेल ने कहा है, "मेरे पिता का कहना था कि पाकिस्तान को यह रक़म मिलेगी तो भारत में लोग इसकी ग़लत व्याख्या करेंगे और पाकिस्तान इस पैसे का इस्तेमाल हमारे ख़िलाफ़ कर सकता है. ऐसे में हमारे देशवासियों की भावनाएँ आहत होंगी. मेरे पिता ने महात्मा गांधी से ये भी कहा था कि इस भूख हड़ताल को लोग ठीक नहीं मानेंगे और इसे पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के हथियार के तौर पर देखेंगे। तुषार गांधी कहते हैं कि नेहरू और पटेल 55 करोड़ रुपए देने पर सहमत नहीं थे क्योंकि उनके लिए जनभावना मायने रखती थी. तुषार कहते हैं, "बापू सही क्या है और गलत क्या है इसी आधार पर फ़ैसला करते थे. उनके लिए मानवता सबसे ऊपर थी. वो वादाख़िलाफ़ी बर्दाश्त नहीं कर सकते थे. जनभावना के दबाव में वो ग़लत फ़ैसले का समर्थन नहीं कर सकते थे. बापू ने वही करने को कहा जिसका वादा भारत ने किया था. नेहरू और पटेल चुनावी राजनीति में आ चुके थे लेकिन बापू आज़ादी के बाद भी अपने सिद्धांतों पर ही चल रहे थे. बापू को न जनभावना से डर लगता था और न ही मौत से। 

महात्मा गांधी जब भूख हड़ताल पर थे तो बिड़ला भवन में उनके ख़िलाफ़ लोग प्रदर्शन भी कर रहे थे. लोग नाराज़ थे कि वो सरकार को 55 करोड़ रुपए देने पर मजबूर कर रहे हैं और दिल्ली में मुसलमानों के घर हिन्दू शरणार्थियों को नहीं दे रहे हैं. दिल्ली में सांप्रदायिक तनाव के कारण मुसलमान अपना घर-बार छोड़ बाहर निकल गए थे. उन्हें पुराना क़िला और हुमायूँ के क़िले में रखा गया था। हिन्दू शरणार्थी मुसलमानों के घरों पर कब्ज़ा चाहते थे जबकि गांधी इसके ख़िलाफ़ भूख हड़ताल पर बैठ गए थे. गांधी की इस भूख हड़ताल के ख़िलाफ़ हिन्दू शरणार्थी ग़ुस्से में नारे लगा रहे थे- 'गांधी मरता है, तो मरने दो'. महात्मा गांधी के आजीवन सचिव रहे प्यारेलाल ने अपनी किताब ‘महात्मा गांधी द लास्ट फ़ेज’ में लिखा है, "इस भूख हड़ताल से दिल्ली में हिन्दू और मुसलमानों के बीच दुश्मनी कम करने में बहुत मदद मिली। 18 जनवरी 1948 को एक शांति समिति बनी. महात्मा गांधी को भरोसा दिया गया कि--महरौली में सूफ़ी संत कुतुबउद्दीन बख़्तियार काकी का उर्स हर साल की तरह मनाया जाएगा. मुसलमान दिल्ली के अपने घरों में जा सकेंगे. मस्जिदों को हिन्दुओं और सिखों के क़ब्ज़े से ख़ाली कराया जाएगा. मुसलमान इलाक़ों को अवैध कब्ज़ों से छुड़ाया जाएगा. डर से जो मुसलमान अपना घर छोड़कर भागे हैं उनके वापस आने पर हिन्दू आपत्ति नहीं जताएँगे। 

इन आश्वासनों के बाद महात्मा गांधी ने 18 जनवरी को दोपहर 12.45 बजे मौलाना आज़ाद के हाथ से संतरे का जूस पीकर भूख हड़ताल ख़त्म की। 

तो क्या हत्यारा गोडसे नहीं होता?

इसके बाद हिन्दू महासभा के मंच तले एक बैठक हुई. इस बैठक में भारत सरकार को पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देने पर मजबूर करने और हिन्दू शरणार्थियों को मुसलमानों के घरों में नहीं रहने देने की तीखी आलोचना की. इस बैठक में महात्मा गांधी के ख़िलाफ़ आपत्तिजनक शब्दों का भी इस्तेमाल किया गया. उन्हें तानाशाह कहा गया और उनकी तुलना हिटलर से की गई. 19 जनवरी को हिन्दू महासभा के सचिव आशुतोष लाहिड़ी ने हिन्दुओं को संबोधित करते हुए एक पर्चा निकाला। पुलिस की रिपोर्ट बताती है कि मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा को लेकर महात्मा गांधी की भूख हड़ताल से सिख भी नाराज़ थे. सिखों को भी लग रहा था कि गांधी ने हिन्दू और सिखों के लिए कुछ नहीं किया. पुलिस की रिपोर्ट के अनुसार, दूसरी ओर, मुसलमानों ने 19 और 23 जनवरी को दो प्रस्ताव पास करके कहा कि गांधी ने उनकी निःस्वार्थ सेवा की है। 

गांधी की हत्या की पृष्ठभूमि में ये घटनाएँ तात्कालिक कारण रहीं. 17 से 19 जनवरी के बीच गांधी की हत्या की साज़िश रचने और हत्या करने वाले दिल्ली ट्रेन और फ़्लाइट से आ चुके थे. ये दिल्ली के होटलों और हिन्दू महासभा भवन में रह रहे थे. 18 जनवरी, 1948 को कुछ षड्यंत्रकारी शाम में पाँच बजे बिड़ला भवन में महात्मा गांधी की प्रार्थना सभा में शामिल हुए. ये भीड़ और जगह का मुआयना करने गए थे। 19 जनवरी को हिन्दू महासभा भवन में इनकी बैठक हुई और महात्मा गांधी की हत्या का पूरा खाका तैयार किया गया. 19 जनवरी को कुल सात में से तीन षड्यंत्रकारी नाथूराम विनायक गोडसे, विष्णु करकरे और नारायण आप्टे बिड़ला हाउस गए और प्रार्थना सभा की जगह का मुआयना किया. उसी दिन शाम में चार बजे ये फिर से प्रार्थना सभा के ग्राउंड पर गए और रात में दस बजे पाँचों हिन्दू महासभा भवन में मिले. 20 जनवरी को नाथूराम गोड़े की तबीयत ख़राब हो गई लेकिन चार लोग फिर से बिड़ला भवन गए और वहाँ की गतिविधियों को समझा. बिड़ला भवन से ये चारों हिन्दू महासभा भवन दिन में 10.30 बजे लौटे. इसके बाद हिन्दू महासभा भवन के पीछे जंगल में इन्होंने अपने रिवॉल्वर की जाँच की. रिवॉल्वर की जाँच के बाद फ़ाइनल प्लान सेट करने के लिए ये सभी दिल्ली के कनॉट प्लेस के मरीना होटल में मिले. शाम में पौने पाँच बजे ये बिड़ला भवन पहुँचे. बिड़ला भवन की दीवार के पीछे से मदनलाल पाहवा ने प्रार्थना सभा में बम फेंका। मदनलाल को मौक़े पर ही गिरफ़्तार‍ कर लिया गया. उनके पास से हैंड ग्रेनेड भी बरामद हुआ. तीन अन्य प्रार्थना सभा में थे और ये भीड़ का फ़ायदा उठाकर भाग गए. गांधी के पड़पोते तुषार गांधी कहते हैं कि बापू को मारने की असली साज़िश की तारीख़ 20 जनवरी ही थी, लेकिन उस दिन वे नाकाम रहे और दस दिन बाद गांधीजी के जीवन का अंतिम दिन आ गया। हत्याकांड की गहरी पड़ताल कर चुके तुषार गांधी ने बीबीसी से कहा, "इनकी योजना थी कि धमाके के बाद भगदड़ हो जाएगी और दिगंबर बड़गे गांधीजी को गोली मार देगा. लेकिन मदनलाल पाहवा ने धमाका किया तो बापू ने सबको समझा कर बैठा दिया और भगदड़ नहीं मचने दी. ऐसे में दिगंबर बड़गे को गोली मारने का मौक़ा नहीं मिला और वहाँ से भागना पड़ा. उस दिन गोली मारने की ज़िम्मेदारी बड़गे को मिली थी. अगर 20 जनवरी को वे कामयाब होते तो हत्यारा गोडसे नहीं, बल्कि दिगंबर बड़गे होता। 


हत्या के दो मुख्य दोषी नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे उसी दिन दिल्ली के मुख्य रेलवे स्टेशन से ट्रेन से इलाहाबाद, कानपुर होते हुए बॉम्बे भाग गए. ये 23 जनवरी की शाम में बॉम्बे पहुँचे. तीसरे नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे उस रात दिल्ली के फ़्रंटियर हिन्दू होटल में रुके और 21 जनवरी की सुबह फ़्रंटियर मेल से बॉम्बे के लिए निकल गए. चौथे विष्णु करकरे 23 जनवरी की दोपहर तक दिल्ली में ही रहे और दोपहर बाद वो भी ट्रेन और बस बदलते हुए 26 जनवरी की सुबह कल्याण पहुँचे. दिगंबर बड़गे और शंकर किस्टया 20 जनवरी को बॉम्बे एक्सप्रेस से कल्याण के लिए निकले थे और 22 जनवरी की सुबह पहुँच गए थे. उसी दिन ये पूणे के लिए निकल गए थे. इस तरह हत्या में शामिल लोग दिल्ली से भाग गए और किसी का पता भी नहीं चला.20 जनवरी को बम फेंकने की ख़बर अगले दिन अख़बारों में छपी. टाइम्स ऑफ इंडिया, द स्टेट्समैन, बॉम्बे क्रॉनिकल में यह ख़बर बैनर शीर्षक से छपी. तब टाइम्स ऑफ इंडिया से एक पुलिस इंस्पेक्टर ने कहा था, "बम शक्तिशाली था और इससे कई लोगों की जान जा सकती थी. हैंड ग्रेनेड महात्मा गांधी को मारने के लिए था।बॉम्बे क्रॉनिकल में रिपोर्ट छपी कि मदललाल पाहवा ने बम फेंकने का गुनाह क़बूल लिया है और कहा कि वो महात्मा गांधी के शांति अभियान से ख़फ़ा हैं इसलिए हमला किया। 

मदनलाल पाहवा से पहले बिड़ला भवन में ही पूछताछ हुई, उसके बाद संसद मार्ग पुलिस स्टेशन ले जाया गया. पाहवा से पुलिस के सीनियर अधिकारियों ने पूछताछ की और उसने बयान दिए. पाहवा के बयान को लेकर पर्याप्त विवाद भी हुआ. पाहवा ने करकरे का नाम लिया था और साथ में यह भी बताया कि वो और उसके बाक़ी साथी दिल्ली में कहाँ रुके थे. मरीना होटल और हिन्दू महासभा भवन पर छापे मारे गए. इस दौरान पता चला कि गोडसे और आप्टे नाम बदलकर एस. और एम. देशपांडे नाम से रुके थे.इस छापे में हिन्दू महासभा के कुछ दस्तावेज भी बरामद हुए. 21 जनवरी को 15 दिन के रिमांड पर पाहवा को लिया गया. संसद मार्ग पुलिस थाना से पाहवा को सिविल लाइंस लाया गया और 24 जनवरी तक पूछताछ चली। अपने बयान में पाहवा ने ‘हिन्दू राष्ट्र’ अख़बार के मालिक का नाम लिया लेकिन अग्रणी अख़बार के संपादक का नाम नहीं लिया, जिसके संपादक नाथूराम गोडसे थे, मालिक थे नारायण आप्टे. 23 जनवरी को मरीना होटल के एक कर्मचारी कालीराम ने दिल्ली पुलिस को कुछ कपड़े सौंपे लेकिन पुलिस इनका जाँच में इस्तेमाल करने में नाकाम रही. 25 जनवरी को पाहवा को बॉम्बे पुलिस बॉम्बे ले गई और 29 जनवरी तक पूछताछ होती रही लेकिन इसका कोई फ़ायदा नहीं हुआ। 27 जनवरी को गोडसे और आप्टे बॉम्बे से दिल्ली के लिए निकल गए. दोनों ट्रेन से ग्वालियर आए और रात में डॉ दत्तात्रेय परचुरे के घर रुके. अगले दिन यहीं से इटली में बनी काले रंग की ऑटोमैटिक बैरेटा माउज़र ख़रीदी. 29 जनवरी की सुबह दिल्ली आ गए. दोनों दिल्ली के मुख्य रेलवे स्टेशन पर रेलवे के ही एक कमरे में रुके. यहीं पर इनकी मुलाक़ात करकरे से हुई। 


30 जनवरी को इन्होंने बिड़ला भवन के पीछे जंगल में पिस्टल शूटिंग की प्रैक्टिस की और शाम में पाँच बजे बापू को गोली मार दी. नाथूराम को वहीं गिरफ़्तार कर लिया गया लेकिन आप्टे और करकरे एक बार फिर से दिल्ली से भागने में कामयाब रहे. आप्टे और करकरे 14 फ़रवरी को जाकर गिरफ़्तार हुए.जज आत्माचरण ने फ़ैसले के बाद कहा था कि पुलिस ने 1948 में 20 से 30 जनवरी के बीच जमकर लापरवाही की. मदनलाल पाहवा की गिरफ़्तारी के बाद दिल्ली पुलिस के पास गांधीजी की हत्या की साज़िश को लेकर पर्याप्त जानकारी थी.जज आत्माचरण ने कहा था, "मदनलाल पाहवा ने साज़िश को लेकर बहुत कुछ बता दिया था. रुइया कॉलेज के प्रोफ़ेसर जीसी जैन ने बॉम्बे प्रेसिडेंसी के गृह मंत्री मोरारजी देसाई को साज़िश के बारे में बताया और उन्होंने भी बॉम्बे पुलिस को सारी सूचना दे दी थी. लेकिन पुलिस बुरी तरह से नाकाम रही. अगर पुलिस ठीक से काम करती तो शायद गांधीजी की हत्या न हुई होती। 

इसके बावजूद किसी पुलिस वाले के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं हुई. तुषार गांधी ने लिखा है कि महात्मा गांधी की हत्या के मामले में चीफ़ इन्वेस्टिगेशन ऑफ़िसर जमशेद दोराब नागरवाला ने रिटायर होने के बाद कहा था, "मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि बिना सावरकर की मदद और भागीदारी के बिना गांधी की हत्या की साज़िश कभी सफल नहीं होती". (लेट्स किल गांधी, पेज-691) इसके बावजूद सावरकर को बेगुनाह क़रार दिया गया था। 

सरदार पटेल देश के गृह मंत्री थे इसलिए उन पर भी ख़ूब सवाल उठे. मौलाना आज़ाद ने लिखा, "जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि सरदार पटेल गृह मंत्री के तौर पर गांधी की हत्या में अपनी ज़िम्मेदारी से भाग नहीं सकते हैं". (इंडिया विन्स फ़्रीडम, पेज--223)सरदार पटेल की बेटी मणिबेन पटेल ने गवाह के तौर पर कपूर कमिशन से अपने बयान में कहा है कि उनके पिता को मुस्लिम विरोधी के तौर पर देखा जाता था और उनकी जान को ख़तरा था क्योंकि मारने की धमकी उनके घर तक आई थी. मणिबेन पटेल ने भी स्वीकार किया है कि जयप्रकाश नारायण ने सार्वजनिक रूप से उनके पिता को गांधी की हत्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराया था.

मणिबेन ने कहा है, "जिस बैठक में उनके पिता को जयप्रकाश नारायण ने गांधी की हत्या के लिए ज़िम्मेदार बताया था उसमें मौलाना आज़ाद भी थे लेकिन उन्होंने कोई आपत्ति नहीं जताई. इससे मेरे पिता को बहुत दुख पहुंचा। मणिबेन पटेल ने कपूर कमिशन से कहा था, "मेरे पिता पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देने से बहुत दुखी थे. उन्हें लगता था कि इस रक़म को देने की वजह से ही बापू की हत्या हुई. यहाँ तक कि नेहरू भी पैसे देने के पक्ष में नहीं थे. इसी दौरान सरदार पटेल ने नेहरू से कहा था कि कैबिनेट से छुट्टी दे दीजिए क्योंकि मौलाना भी मुझे नहीं चाहते हैं".गांधी की हत्या के बाद नेहरू ने पटेल को एक चिट्ठी लिखी. उस चिट्ठी के बारे में मणिबेन ने बताया कि उसमें नेहरू ने लिखा, "अतीत को भूलकर हमें साथ मिलकर काम करना चाहिए". नेहरू की बात सरदार ने भी मान ली लेकिन जयप्रकाश नारायण ने सरदार पर हमला करना जारी रखा. पाँच मार्च 1948 को सरदार को हार्ट अटैक आया तो उन्होंने कहा कि अब मर जाना चाहिए और गांधीजी के पास जाना चाहिए. वो अकेले चले गए हैं। 

गांधी की हत्या के एक हफ़्ते बाद यानी छह फ़रवरी, 1948 को संसद का विशेष सत्र बुलाया गया और सरदार पटेल से सांसदों ने कई तीखे सवाल पूछे. 'तेज़' अख़बार के संस्थापक सांसद देशबंधु गुप्ता ने सरदार पटेल से संसद में पूछा, "मदनलाल पाहवा ने गिरफ़्तारी के बाद अपना गुनाह भी क़बूल लिया था और आगे की योजना के बारे में भी बताया था. कौन-कौन इसमें शामिल हैं ये भी बताया था. ऐसे में क्या दिल्ली सीआईडी बॉम्बे से इनकी तस्वीरें नहीं जुटा सकती थीं? फ़ोटो मिलने के बाद प्रार्थना सभा में बाँट दी जाती और लोग सतर्क रहते. क्या इसमें घोर लापरवाही नहीं हुई है?इस सवाल के जवाब में पटेल ने कहा, "दिल्ली पुलिस ने इन्हें पकड़ने की कोशिश की लेकिन सभी अलग-अलग ठिकानों पर थे. इनकी तस्वीरें भी नहीं मिल पाई थीं". महात्मा गांधी के आजीवन सचिव रहे प्यारेलाल जाँच में गवाह नंबर 54 थे. उन्होंने कहा है कि विभाजन के बाद पटेल के गांधी से मतभेद थे लेकिन गांधी को लेकर उनके मन में इज़्ज़त कम नहीं हुई थी. प्यारेलाल ने कहा था, "पटेल कहते थे कि मुसलमान भारत में रह सकते हैं और उन्हें सुरक्षा भी मिलेगी लेकिन उनकी वफ़ादारी भारत और पाकिस्तान के बीच में बँटी नहीं रह सकती".


मणिबेन पटेल ने कहा है कि उनके पिता सरदार पटेल बापू की सुरक्षा को लेकर चिंतित थे क्योंकि पहले भी हमले हो चुके थे. मणिबेन ने कहा है, "मेरे पिता ने महात्मा गांधी से जाकर कहा था कि प्रार्थना सभा में आने वाले लोगों की जाँच की जाएगी उसके बाद ही अंदर आने दिया जाए लेकिन गांधी इसके लिए तैयार नहीं हुए थे".आरएसएस गांधी की हत्या में किसी भी तरह की भूमिका से लगातार इनकार करता रहा है, यहाँ तक कि राहुल गांधी के ख़िलाफ़ मानहानि का एक मुकदमा दायर किया गया है. लेकिन यह मामला इतना सीधा-सादा नहीं है। पटेल ने गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाते हुए कहा था, "गांधी की हत्या के लिए वह सांप्रदायिक ज़हर ज़िम्मेदार है जिसे देश भर में फैलाया गया। नवजीवन प्रकाशन अहमदाबाद से प्रकाशित गांधी के निजी सचिव रहे प्यारेलाल ने लिखा है, ''आरएसएस के सदस्यों को कुछ स्थानों पर पहले से निर्देश था कि वो शुक्रवार को अच्छी ख़बर के लिए रेडियो खोलकर रखें. इसके साथ ही कई जगहों पर आरएसएस के सदस्यों ने मिठाई भी बांटी थी.'' (गांधी द लास्ट फ़ेज, पेज-70)

गांधी की हत्या के दो दशक बाद आरएसएस के मुखपत्र 'ऑर्गेनाइज़र' ने 11 जनवरी 1970 के संपादकीय में लिखा था, ''नेहरू के पाकिस्तान समर्थक होने और गांधी जी के अनशन पर जाने से लोगों में भारी नाराज़गी थी. ऐसे में नाथूराम गोडसे लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, गांधी की हत्या जनता के आक्रोश की अभिव्यक्ति थी। कपूर आयोग की रिपोर्ट में समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और कमलादेवी चटोपाध्याय की प्रेस कॉन्फ़्रेंस में उस बयान का ज़िक्र है जिसमें इन्होंने कहा था कि 'गांधी की हत्या के लिए कोई एक व्यक्ति ज़िम्मेदार नहीं है बल्कि इसके पीछे एक बड़ी साज़िश और संगठन है'. इस संगठन में इन्होंने आरएसएस, हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग का नाम लिया था. गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर पाबंदी भी लगी। आरएसएस पर यह पाबंदी फ़रवरी 1948 से जुलाई 1949 तक रही थी.नाथुराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे ने 28 जनवरी, 1994 को  नाथूराम, दत्तात्रेय, मैं ख़ुद और गोविंद. आप कह सकते हैं कि हम अपने घर में नहीं, आरएसएस में पले-बढ़े हैं. आरएसएस हमारे लिए परिवार था. नाथूराम आरएसएस में बौद्धिक कार्यवाह बन गए थे. नाथूराम ने अपने बयान में आरएसएस छोड़ने की बात कही थी. उन्होंने यह बयान इसलिए दिया था क्योंकि गोलवलकर और आरएसएस गांधी की हत्या के बाद मुश्किल में फँस जाते, लेकिन नाथूराम ने आरएसएस नहीं छोड़ा था। इसी इंटरव्यू में गोपाल गोडसे से पूछा गया कि आडवाणी ने नाथूराम के आरएसएस से संबंध को ख़ारिज किया है तो इसके जवाब में उन्होंने कहा, ''वो कायरतापूर्ण बात कर रहे हैं. आप यह कह सकते हैं कि आरएसएस ने कोई प्रस्ताव पास नहीं किया था कि 'जाओ और गांधी की हत्या कर दो', लेकिन आप नाथूराम के आरएसएस से संबंधों को ख़ारिज नहीं कर सकते. हिन्दू महासभा ने ऐसा नहीं कहा. नाथूराम राम ने बौद्धिक कार्यवाह रहते हुए 1944 में हिन्दू महासभा के लिए काम करना शुरू किया था। नाथूराम गोडसे किसी ज़माने में आरएसएस के सदस्य रहे थे, लेकिन बाद में वो हिन्दू महासभा में आ गए थे. हालांकि 2016 में आठ सितंबर को इकनॉमिक टाइम्स को दिए इंटरव्यू में गोडसे के परिवार वालों ने जो कहा वह काफ़ी अहम है। नाथूराम गोडसे और विनायक दामोदर सावरकर के वंशज सत्याकी गोडसे ने इकनामिकटाइम्स  को दिए इंटरव्यू में कहा था, ''नाथूराम जब सांगली में थे तब उन्होंने 1932 में आरएसएस ज्वाइन किया था. वो जब तक ज़िंदा रहे तब तक संघ के बौद्धिक कार्यवाह रहे. उन्होंने न तो कभी संगठन छोड़ा था और न ही उन्हें निकाला गया था। महात्मा गांधी ने कहा था कि वे 125 साल तक ज़िंदा रहना चाहते हैं. हत्या से क़रीब छह साल पहले यानी 72 की उम्र में बापू ने अपनी यह तमन्ना ज़ाहिर की थी, उनका जीवन अचानक ख़त्म कर दिया 37 साल के मराठी ब्राह्मण नाथूराम गोडसे ने. जब गांधी की हत्या हुई तो वे 78 साल के थे।

स्रोत - जस्टिस जेएल कपूर कमिश्न की रिपोर्ट, लेट्स किल गांधी (तुषार गांधी), लास्ट फ़ेज़ ऑफ़ महात्मा गांधी (प्यारेलाल), इंडिया विन्स फ़्रीडम ( मौलाना आज़ाद) द्वारा बीबीसी

      

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