अस्पताल जाते वक्त बहुत कम लोगों को इस बात का एहसास होता है कि एक उपभोक्ता के नाते उनके भी अधिकार हैं।
डॉक्टर अरुण गदरे और डॉक्टर अभय शुक्ल अपनी किताब 'डिसेंटिंग डायग्नोसिस' में लिखते हैं कि स्वास्थ्य सेवाएं देना किसी सामान बेचने जैसा नहीं है। डॉक्टर और मरीज़ का रिश्ता ख़ास होता है, जहां डॉक्टर मरीज़ की ओर से कई फ़ैसले लेता है।
स्वास्थ्य सेवाएं देने वाले अस्पताल 'मेडिकल क्लीनिक कंज्यूमर प्रोटेक्शन ऐक्ट' के अंदर आते हैं. अगर डॉक्टर की लापरवाही का मामला हो या सेवाओं को लेकर कोई शिकायत हो तो उपभोक्ता हर्जाने के लिए उपभोक्ता अदालत जा सकते हैं.भारत में मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया की ज़िम्मेदारी है कि वो ये सुनिश्चित करे कि डॉक्टर 'कोड ऑफ़ मेडिकल एथिक्स रेग्युलेशंस' का पालन करें, लेकिन आरोप है कि कई मामलों में ऐसा नहीं होता है.अपनी किताब में डॉक्टर गदरे और डॉक्टर शुक्ल ने मरीज़ों के अधिकारों और ज़िम्मेदारियों की बात की है। अस्पताल में दाखिल होने के पहले ये आठ बातें ज़रूर ध्यान में रखनी चाहिए।
इमरजेंसी मेडिकल मदद का अधिकार
अगर कोई व्यक्ति नाज़ुक स्थिति में अस्पताल पहुंचता है तो सरकारी और निजी अस्पताल के डॉक्टरों की ज़िम्मेदारी है कि उस व्यक्ति को तुरंत डॉक्टरी मदद दी जाए, इसका मतलब है सांस लेने में आ रही किसी दिक्क़त को हटाना, खून के नुक़सान की जांच करना, नसों के माध्यम से मरीज़ को तरल पदार्थ देना आदि जान बचाने के लिए ज़रूरी स्वास्थ्य सुविधाएं देने के बाद ही अस्पताल मरीज़ से पैसे मांग सकते हैं या फिर पुलिस को जानकारी देने की प्रक्रिया शुरू कर सकते हैं। ग़रीब मरीज़ों की इमरजेंसी मेडिकल मदद के लिए एक आर्थिक फंड बनाने का प्रस्ताव किया गया था। लेकिन इसमें कोई ठोस प्रगति नहीं हुई।
2-खर्च की जानकारी का अधिकारसभी मरीज़ों को जानकारी दी जानी चाहिए कि उनको क्या बीमारी है और इलाज का क्या नतीजा निकलेगा. साथ ही मरीज़ को इलाज पर खर्च, उसके फ़ायदे और नुक़सान और इलाज के विकल्पों के बारे में बताया जाना चाहिए। इलाज और खर्च के बारे में जानकारी अस्पताल में स्थानीय और अंग्रेज़ी भाषाओं में लिखी होनी चाहिए। अगर अस्पताल एक पुस्तिका के माध्यम से मरीज़ों को इलाज, जांच आदि के खर्च के बारे में बताएं तो ये अच्छी बात होगी. इससे मरीज़ के परिवार को इलाज पर होने वाले खर्च को समझने में मदद मिलेगी. मरीज़ के अनुरोध पर अस्पताल को लिखित में खर्च के बारे में जानकारी देनी चाहिए।
3-मेडिकल रिपोर्ट्स, रिकॉर्ड्स पर अधिकारकिसी भी मरीज़ या फिर उसके मान्यता प्राप्त व्यक्ति को अधिकार है कि अस्पताल उसे केस से जुड़े सभी कागज़ात की फ़ोटोकॉपी दे. ये फ़ोटोकॉपी अस्पताल में भर्ती होने के 24 घंटे के भीतर और डिस्चार्ज होने के 72 घंटे के भीतर दी जानी चाहिए। कोई भी अस्पताल मरीज़ को उसके मेडिकल रिकॉर्ड या रिपोर्ट देने से मना नहीं कर सकता, इन रिकॉर्ड्स में डायग्नोस्टिक टेस्ट, डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय, अस्पताल में भर्ती होने का कारण आदि शामिल हैं। डिस्चार्ज के समय मरीज़ को एक डिस्चार्ज कार्ड दिया जाना चाहिए जिसमें भर्ती के समय मरीज़ की स्थिति, लैब टेस्ट के नतीजे, अस्पताल में भर्ती के दौरान इलाज, डिस्चार्ज के बाद इलाज, क्या कोई दवा लेनी है या नहीं लेनी है, क्या सावधानियां बरतनी हैं, क्या जांच के लिए वापस डॉक्टर के पास जाना है, इन सब बातों का ज़िक्र होना चाहिए।
4-दूसरी राय लेने का अधिकारअगर आप किसी डॉक्टर के तरीके से ख़ुश नहीं हैं तो आप किसी दूसरे डॉक्टर की सलाह ले सकते हैं. ऐसे में ये अस्पताल को सभी मेडिकल और डायग्नोस्टिक रिपोर्ट मरीज़ को उपलब्ध करवानी चाहिए। किसी दूसरे डॉक्टर की सलाह उस वक्त महत्वपूर्ण हो जाती है जब बीमारी से जान को ख़तरा हो, या फिर डॉक्टर जिस लाइन पर इलाज सोच रहा है उस पर सवाल हो।
5-इलाज की गोपनीयता का अधिकारइलाज के दौरान डॉक्टर को कई ऐसी बातें पता होती हैं जिसका ताल्लुक मरीज़ की निजी ज़िंदगी से होता है. डॉक्टर का फर्ज़ है कि वो इन जानकारियों को गोपनीय रखे।
6-मंज़ूरी लेने से पहले पूरी जानकारी का अधिकारकिसी बड़ी सर्जरी से पहले डॉक्टर का फ़र्ज है कि वो मरीज़ या फिर उसका ध्यान रखने वाले व्यक्ति को सर्जरी के दौरान होने वाले मुख्य ख़तरों के बारे में बताए और जानकारी देने के बाद सहमति पत्र पर दस्तख़त करवाए। और ये भी पूछे कि क्या वो सर्जरी करवाना चाहते हैं. कई बार ये सारे काम बेहद कामचलाऊ तरीक़े से किए जाते हैं और मरीज़ को सर्जरी या ऑपरेशन के बारे में, उसके खतरों के बारे में कुछ पता नहीं होता है। ऑपरेशन से पहले मरीज़ या फिर उसके रिश्तेदारों से कहा जाता है कि वो दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर कर दें।
7-मेडिकल स्टोर या डायग्नोस्टिक सेंटर चुनने का अधिकारकई लोगों की ये आम शिकायत है कि जब किसी अस्पताल में डॉक्टर उन्हें दवा की पर्ची देता है तो कहता है कि वो अस्पताल की ही दुकान से दवा खरीदें या फिर अस्पताल में ही डायग्नॉस्टिक टेस्ट करवाएं। अस्पताल ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि ये उपभोक्ता के अधिकारों का हनन है. उपभोक्ता को आज़ादी है कि वो टेस्ट जहां से चाहे, वहीं से करवाए। मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया की नीति के मुताबिक़, जहां तक संभव हो, डॉक्टर को दवाई का वैज्ञानिक (जेनेरिक) नाम इस्तेमाल करना चाहिए, न कि किसी कंपनी का ब्रैंड नेम।
8-अस्पताल से डिस्चार्ज का अधिकार कई बार देखा गया है कि अगर अस्पताल का पूरा बिल न अदा किया गया हो तो मरीज़ को अस्पताल छोड़ने नहीं दिया जाता है, बाम्बे हाई कोर्ट ने इसे 'ग़ैर क़ानूनी कारावास' बताया है। कभी-कभी अस्पताल बिल पूरा नहीं दे पाने की सूरत में लाश तक नहीं ले जाने देते. अस्पताल की ये ज़िम्मेदारी है कि वो मरीज़ और परिवार को दैनिक खर्च के बारे में बताएं लेकिन इसके बावजूद अगर बिल को लेकर असहमति होती है, तब भी मरीज़ को अस्पताल से बाहर जाने देने से या फिर शव को ले जाने से नहीं रोका जा सकता। अगर किसी मरीज़ को शिकायत है तो उसे केस के बारे में सभी सबूत इकट्ठे करने चाहिए और किसी स्थानीय उपभोक्ता संगठन से संपर्क करना चाहिए.डॉक्टर अरुण गदरे और डॉक्टर अभय शुक्ल के मुताबिक़, कोशिश होनी चाहिए कि अस्पताल प्रशासन और डॉक्टर से बातचीत हो ताकि समस्या का हल निकाला जा सके. लेकिन अगर कोई हल नहीं निकलता है तो राज्य मेडिकल काउंसिल में डॉक्टर और अस्पताल के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज करवानी चाहिए।
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