किसानों के इस भारत बंद का विपक्षी कांग्रेस पार्टी समेत कुल 24 राजनीतिक पार्टियों ने समर्थन किया है. किसान संगठनों का कहना है कि अगर मोदी सरकार ने कृषि क़ानूनों को वापस नहीं लिया तो आने वाले वक़्त में उन्हें उनकी उपज के औने-पौने दाम मिला करेंगे और खेती की लागत भी नहीं निकल पाएगी। इसके साथ ही किसानों को यह आशंका भी है कि सरकार की ओर से मिलने वाली न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की गारंटी भी ख़त्म हो जायेगी।
राज्य सरकारें चिंतित हैं-
राज्य सरकारें मंडी टैक्स में गिरावट की संभावना को लेकर चिंतित हैं। ग़ैर-बीजेपी शासित प्रदेशों ने खुलकर कहा है कि इन क़ानूनों से उन्हें टैक्स का घाटा होगा, भारत के विभिन्न राज्यों में मंडी टैक्स 1 से लेकर 8.5 प्रतिशत तक है जो राज्य सरकारों के खाते में जाता है।कुछ आर्थिक मामलों के जानकार और कार्यकर्ता कहते हैं कि पंजाब और राजस्थान इससे संबंधित क़ानून लाने पर भी विचार कर रहे हैं।
भारत में सात हज़ार एपीएमसी मार्केट हैं और कृषि उत्पादन की अधिकांश ख़रीद मंडियों के बाहर ही होती है. बिहार, केरल और मणिपुर ने एपीएमसी सिस्टम को लागू नहीं किया है.
फसल स्टॉक की अनुमति को लेकर भी काफ़ी चिंता है। माना गया है कि इससे कृषि क्षेत्र में ज़रूरी निवेश तो आयेगा, पर छोटे किसानों को इससे फ़ायदा होगा, इसकी संभावना कम ही है क्योंकि वो बड़े निवेशकों से मोलभाव करने की स्थिति में नहीं होंगे। जून महीने में इस बिल को अध्यादेश के ज़रिए लाया गया था. बाद में संसद के मॉनसून सत्र में इसे ध्वनि-मत से पारित कर दिया गया जबकि विपक्षी पार्टियाँ इसके ख़िलाफ़ थीं।
द फ़ार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फ़ैसिलिटेशन), 2020 क़ानून के मुताबिक़, किसान अपनी उपज एपीएमसी यानी एग्रीक्लचर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी की ओर से अधिसूचित मण्डियों से बाहर बिना दूसरे राज्यों का टैक्स दिये बेच सकते हैं।
दूसरा क़ानून है - फ़ार्मर्स (एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फ़ार्म सर्विस क़ानून, 2020. इसके अनुसार, किसान अनुबंध वाली खेती कर सकते हैं और सीधे उसकी मार्केटिंग कर सकते हैं।
तीसरा क़ानून है - इसेंशियल कमोडिटीज़ (एमेंडमेंट) क़ानून, 2020. इसमें उत्पादन, स्टोरेज के अलावा अनाज, दाल, खाने का तेल, प्याज की बिक्री को असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर नियंत्रण-मुक्त कर दिया गया है.सरकार का तर्क है कि नये क़ानून से किसानों को ज़्यादा विकल्प मिलेंगे और क़ीमत को लेकर भी अच्छी प्रतिस्पर्धा होगी.इसके साथ ही कृषि बाज़ार, प्रोसेसिंग और आधारभूत संरचना में निजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा.किसानों के विरोध-प्रदर्शन में सबसे बड़ा जो डर उभरकर सामने आया है वो ये है कि एमएसपी की व्यवस्था अप्रासंगिक हो जाएगी और उन्हें अपनी उपज लागत से भी कम क़ीमत पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
एमएसपी-
एमएसपी व्यवस्था के तहत केंद्र सरकार कृषि लागत के हिसाब से किसानों की उपज ख़रीदने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है। फ़सलों की बुआई के हर मौसम में कुल 23 फ़सलों के लिए सरकार एमएसपी तय करती है. हालांकि, केंद्र सरकार बड़ी मात्रा में धान, गेहूँ और कुछ ख़ास दालें ही ख़रीदती हैं। साल 2015 में शांता कुमार कमेटी ने नेशनल सेंपल सर्वे का जो डेटा इस्तेमाल किया था। उसके मुताबिक़ केवल 6 फ़ीसदी किसान ही एमसएसपी की दर पर अपनी उपज बेच पाते हैं, केंद्र सरकार के इन तीनों नये क़ानूनों से एमएसपी सीधे तौर पर प्रभावित नहीं होती है। हालांकि एपीएमसी से अधिसूचित ज़्यादातर सरकारी ख़रीद केंद्र पंजाब, हरियाणा और कुछ अन्य राज्यों में हैं। किसानों को डर है कि एपीएमसी मंडी के बाहर टैक्स मुक्त कारोबार के कारण सरकारी ख़रीद प्रभावित होगी और धीरे-धीरे यह व्यवस्था अप्रासंगिक हो जाएगी। किसानों की माँग है कि एमएसपी को सरकारी मंडी से लेकर प्राइवेट मंडी तक अनिवार्य बनाया जाये ताकि सभी तरह के ख़रीदार - वो चाहे सरकारी हों या निजी इस दर से नीचे अनाज ना ख़रीदें।
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