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पुलिस हिरासत में मौतों पर क्यों नहीं लगती लगाम


मद्रास हाईकोर्ट ने मंगलवार को कहा है कि तमिलनाडु के तूतीकोरिन में पिता-पुत्र का कथित उत्पीड़न करने वाले पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ हत्या का मुक़दमा दर्ज करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य हैं। हाईकोर्ट ने ये आदेश कथित पुलिस उत्पीड़न के कारण जान गँवाने वाले पिता पुत्र की चोटों और इस मामले में की गई मजिस्ट्रेट जांच की रिपोर्ट के आधार पर दिया है.तूतीकोरिन में 19 जून को पुलिस ने 60 वर्षीय पी जयराज और उनके बेटे जे फेनिक्स को लॉकडाउन की समयसीमा के बाद दुकान खोलने के आरोप में हिरासत में लिया था. चार दिन बाद संदिग्ध परिस्थितियों में दोनों की मौत हो गई। 


पुलिस हिरासत में कथित उत्पीड़न के बाद पिता पुत्र की इस मौत के मामले ने भारत में पुलिस हिरासत में मौत और उत्पीड़न के मुद्दे को एक बार फिर उठा दिया है। हाल ही में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हिरासत में रोज़ाना औसतन पाँच लोगों की मौत होती है. इंडिया एनुअल रिपोर्ट ऑन टार्चर 2019 के मुताबिक़ साल 2019 में हिरासत में कुल 1731 मौतें हुईं इनमें से 125 मौतें पुलिस हिरासत में हुईं थीं। वहीं एनसीआरबी के डेटा के मुताबिक़ साल 2017 में पुलिस हिरासत में कुल 100 मौतें पुलिस हिरासत में हुईं थीं. इनमें से 58 लोग ऐसे थे जिन्हें हिरासत में तो लिया गया था लेकिन अदालत के समक्ष पेश नहीं किया गया था।  की एक रिपोर्ट के मुताबिक हिरासत में मौत के 62 मामलों में 33 पुलिसकर्मियों को गिरफ़्तार किया गया था जबकि 27 अन्य पर चार्जशीट दायर की गई थी। 



क्या कहता है मौजूदा क़ानून


मौजूदा क़ानून के तहत हिरासत में लिए गए या गिरफ़्तार किए गए किसी भी व्यक्ति का मेडिकल परीक्षण कराना अनिवार्य होता है। डॉक्टरों को हिरासत में लिए गए व्यक्ति के शरीर पर लगी सभी चोटों को दर्ज करना होता है ताकि शरीर पर नए ज़ख़्म हों, तो उन्हें पुलिस उत्पीड़न का सबूत माना जाए। यही नहीं गिरफ़्तार करने के बाद अभियुक्त को 24 घंटों के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करने का भी प्रावधान है, लेकिन देखा गया है कि भारत में पुलिस बिना किसी डर के इन क़ानूनी बाध्यताओं का उल्लंघन करती है। जयराज और फेनिक्स के मामले का एक पहलू ये भी है कि दोनों को 20 जून को ही मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया था उन के शरीर पर चोट के निशान थे।  बावजूद इसके उन्हें पुलिस हिरासत में भेज दिया गया था। भारत के सुप्रीम कोर्ट का भी आदेश है कि अभियुक्तों को तब ही हिरासत में लिया जाए, जब अपराध में सात साल तक की सज़ा का प्रावधान हो। क़ानूनी नज़रिए से देखा जाए तो अभियुक्तों को कई तरह की सुरक्षा प्राप्त है और उत्पीड़न प्रतिबंधित है,


बावजूद इसके पुलिस हिरासत में उत्पीड़न इतनी सामान्य बात क्यों हैं, इस सवाल पर रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी विभूति नारायण राय कहते हैं, "जो क़ानूनी प्रावधान हैं, वो दुर्भाग्य से हमारे देश में औपचारिकता बन गए हैं, सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णय हैं और विस्तृत गाइडलाइन है, जिसमें गिरफ़्तारी के समय अभियुक्त के रिश्तेदारों को सूचित करना, उनका मेडिकल कराना, उन्हें बताना कि उन्हें क्यों गिरफ़्तार किया जा रहा है, ये सारी औपचारिकताएँ हैं जो पूरी होनी चाहिए. इसके अलावा सीआरपीसी और भारत का संविधान के मुताबिक़ किसी भी अभियुक्त को 24 घंटे से ज़्यादा पुलिस हिरासत में नहीं रखा जा सकता है।  क़ानूनी रूप से तो सबकुछ मौजूद है लेकिन इसका पालन हम नहीं करा पा रहे हैं। इसकी वजह बताते हुए विभूतिनारायण राय कहते हैं, चौबीस घंटे में मजिस्ट्रेट के सामने न पेश करना पड़े इसके लिए आमतौर पर पुलिस लोगों को उठा लाती है और दस्तावेज़ों में उनकी हिरासत को दर्ज नहीं करती है. पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी और अदालतें भी इसे लेकर बहुत गंभीर है. यही नहीं आम लोग भी पुलिस के अवैध तरीक़ों को स्वीकार करते हैं. दुर्भाग्य से भारत में पुलिस की हिंसा को सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है. कई बार जब पुलिस किसी अपराधी को पकड़कर मार देती है तो जनता उसका समर्थन करती है. इसके लिए एनकाउंटर शब्द का इस्तेमाल किया जाता है।


जनता बनती है शिकार


पुलिस उत्पीड़न का शिकार जनता ही होती है लेकिन ये बिडंबना ही है कि जनता ने न सिर्फ़ पुलिस उत्पीड़न को स्वीकार किया है बल्कि समय-समय पर उसका समर्थन भी किया है। हाल के सालों में तकनीक की दुनिया में हुए विकास का असर पुलिस की कार्यशैली पर भी पड़ा है, सीसीटीवी कैमरों, स्मार्टफ़ोन कैमरों ने जनता को पुलिस की कारगुज़ारियों को रिकॉर्ड करने का अवसर दिया है,  क्या इससे पुलिस की कार्यशैली पर कुछ फ़र्क पड़ा है?तमिलनाडु में पुलिस उत्पीड़न के मामले में पुलिसकर्मी सीसीटीवी कैमरों से ही पकड़ में आए हैं, पुलिस ने पूरे प्रकरण की अपनी थ्यौरी दी थी लेकिन कैमरे के फुटेज ने पुलिस के वर्ज़न को ग़लत साबित कर दिया, लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता है. पुलिस सीसीटीवी कैमरों से बचना जानती है, सभी तकनीकी सुविधाओं के बावजूद जबतक समाज का नज़रिया नहीं बदलेगा तब तक पुलिस की कार्यशैली में बदलाव नहीं आएगा। जब तक समाज ये नहीं कहेगा कि हमें बर्बर पुलिस नहीं चाहिए, हमें क़ानून पर चलने वाली पुलिस चाहिए तब तक वास्तविक बदलाव नहीं आएगा।


कहाँ हो रही है चूक


आमतौर पर ये देखा गया है कि जब थाना या चौकी स्तर पर पुलिसकर्मी अभियुक्तों का उत्पीड़न करते हैं, तो शीर्ष पुलिस अधिकारी उनका बचाव करते नज़र आते हैं. सर्वश्रेष्ठ शिक्षा हासिल करने और मानवाधिकारों और क़ानून का प्रशिक्षण हासिल करने वाले वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी पुलिस के ऐसे व्यवहार का समर्थन क्यों करते हैं, इसकी वजह बताते हुए विभूतिनारायण राय कहते हैं, "आईपीएस अधिकारियों के प्रदर्शन को आँकने वाले हमारे राजनेताओं का इस बात में विश्वास नहीं होता कि पुलिस क़ानून का पालन करते हुए जाँच करे, वो ख़ुद थर्ड डिग्री में विश्वास रखते हैं।  शीर्ष अधिकारियों में उत्पीड़न के ऐसे मामले सामने आने पर सज़ा मिलने का डर भी नहीं होता है। राय कहते हैं, "जब तक किसी थाने में हिरासत में हुई हत्या पर शीर्ष आईपीएस अधिकारियों को दंडित नहीं किया जाएगा इस तरह के मामले सामने आते रहेंगे, ये वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों की ज़िम्मेदारी है कि जूनियर अधिकारी क़ानून और मानवाधिकारों का पालन करें। राय कहते हैं, "1861 में भारत में जो पुलिस व्यवस्था बनी, वो 1947 में आज़ादी मिलने के बाद भी जारी रही. इसकी वजह शायद ये है कि जो लोग सत्ता में आए उन्हें भी ऐसी ही पुलिस अच्छी लग रही थी जो क़ायदे-क़ानूनों का उल्लंघन करते हुए उनके राजनीतिक हित पूरे करने में मददगार हो. मैंने देखा है कि अधिकतर आईपीएस अधिकारी ये मानते हैं कि थर्ड डिग्री एक कारगर तरीक़ा है। अभी तमिलनाडु में हिरासत में हुई हत्याओं को बाद शहर के पुलिस चीफ़ पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, जो पुलिसकर्मी इस उत्पीड़न में शामिल थे उन पर कार्रवाई भी तब हुई जब जनता सड़कों पर उतरी और मामला अदालत तक पहुँचा। 


तमिलनाडु में हुई हत्याओं पर चर्चा भी हुई है और विरोध प्रदर्शन भी हुए हैं लेकिन भारत में आमतौर पर हिरासत में हुई हत्याएँ बड़ा मुद्दा नहीं बन पाती है. इसकी वजह बताते हुए ह्यूमन राइट्स वॉच में दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली कहती हैं, "तमिलनाडु में जो घटना हुई है इस तरह टॉर्चर से लोगों की मौत की घटनाएँ होती रहती हैं। गांगुली कहती हैं, "पुलिस दो वजह से टॉर्चर करती है, पहली वजह है पूछताछ करना. पुलिस अधिकारी बताते हैं कि अपराधियों से जानकारी निकालने के लिए टॉर्चर का इस्तेमाल किया जाता है, उन्हें लगता है कि अगर थर्ड डिग्री नहीं दी गई तो अपराधी पुलिस की जाँच में काम आने वाली जानकारी नहीं देगा।  दूसरी वजह है कि पुलिसकर्मी सज़ा देने पर उतर आते हैं. लेकिन सज़ा देना पुलिस का काम नहीं है. जयराम और उनके बेटे को जो पुलिसकर्मी पकड़ कर ले गए थे वो उन्हें सज़ा देने के लिए टॉर्चर कर रहे थे. पुलिस का काम सज़ा देना बिल्कुल भी नहीं है। 


तमिलनाडु में पुलिस हिरासत में हुई मौतों के बाद हुए प्रदर्शनों से क्या कुछ बदलेगा? इस सवाल पर गांगुली कहती हैं, "पुलिस या सुरक्षाबलों की ज़िम्मेदारी को लेकर तो लंबे समय से विरोध होता रहा है. कश्मीर में हिरासत में उत्पीड़न होता रहा है. मणिपुर में तो महिलाओं ने पुलिस हिरासत में बलात्कार के ख़िलाफ़ नग्न होकर प्रदर्शन किया था. ऐसे प्रदर्शन होते रहे हैं और सरकारें कहती रही हैं कि हम क़दम उठाएँगे, लेकिन वास्तव में कुछ होता नहीं है। गांगुली कहती हैं, "देखा ये गया है कि सरकारें ऐसे मामलों के बाद पुलिस को बचाती ही नज़र आती हैं. हाल ही में सीएए-एनआरसी प्रोटेस्ट के दौरान दिल्ली में पुलिस का वीडियो आया जिसमें सड़क पर घायल पड़े युवकों से पुलिस ज़बरदस्ती देशभक्ति के नारे लगवा रही है और उन्हें पीट रही है. इनमें से फ़ैज़ान नाम के एक लड़के ने बाद में दम तोड़ दिया, लेकिन पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई। वो कहती हैं, ऐसी घटनाओं के बाद भी जब पुलिस पर कार्रवाई नहीं की जाती है तो पुलिस को लगता है कि वो जो कुछ भी कर रही है वो सही है. वो फिर चाहें भेदभाव हो या टॉर्चर,


राजनीतिक स्तर पर सुधार-


ऐसे में सवाल उठता है कि सुधार पुलिस के स्तर के बजाए राजनीतिक स्तर पर होना ज़्यादा ज़रूरी है?


गांगुली कहती हैं, सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से जब पुलिस में सुधार की बात हुई थी तो कहा गया था कि ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें पुलिस अधिकारी पर नेताओं का दबाव न हो।  साथ ही शिकायत की प्रक्रिया को मज़बूत करने पर ज़ोर दिया गया था,  लेकिन ये दोनों ही चीज़े नहीं हो सकीं. हम देखते हैं कि पुलिस कई बार उत्पीड़न की कार्रवाई करते हुए ये सोचती है कि सरकार जैसा चाह रही है वो वैसा कर रही है और उसे राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। मीनाक्षी गांगुली कहती हैं कि तमिलनाडु में जो पुलिस उत्पीड़न कर रही थी उसे इस बात का डर नहीं था कि उसका भी कुछ हो सकता है। पुलिस पर ही क़ानून व्यवस्था को संभालने की ज़िम्मेदारी और जब पुलिस ही क़ानूनों का उल्लंघन करे तो क्या हो. क्या सिस्टम में पर्याप्त चेक एंड बैलेंस है?विभूतिनारायण राय कहते हैं,पुलिस में सुधार की ज़रूरत है. लेकिन जिन बुनियादी बदलावों की ज़रूरत है वो नहीं हो पा रहे हैं और इसकी सिर्फ़ एक ही वजह है, हमारे शासक वर्ग को ऐसी ही पुलिस पसंद है। वो कहते हैं,जब तक जो हमारा शासक वर्ग है, जो राजनीतिक प्रतिनिधि क़ानून बनाते हैं, जो पुलिस की ट्रेनिंग और अकाउंटेबिलीटी के लिए ज़िम्मेदार है, जब तक वो स्वयं ये विश्वास नहीं करेंगे कि एक सभ्य पुलिस भारत को चाहिए, तब तक पुलिस की कार्यशैली में बहुत परिवर्तन नहीं हो पाएगा।


 


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