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जरूर जानना चाहिए घिनोना सच: जिन्ना के मरने का असली सच मालुम होता तो न होता पाकिस्तान का बटवारा,

मोहम्मद अली जिन्ना के जीवन के इन आख़िरी 60 दिनों में क्या-क्या हुआ, यही इस लेख का विषय है।


14 जुलाई 1948 का दिन था. उस समय के गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना को उनकी बीमारी के बावजूद क्वेटा से ज़ियारत ले जाया गया था। 


इसके बाद वो सिर्फ 60 दिन जिंदा रहे और 11 सितंबर 1948 को इस दुनिया से रुख़सत हो गए। 


 


रहस्य की ये गुत्थी आज तक हल नहीं हो सकी कि 'क़ायद-ए-आज़म' मोहम्मद अली जिन्ना को गंभीर बीमारी के बावजूद क्वेटा से ज़ियारत ले जाने की सलाह किसने दी थी। ज़ियारत अपने देवदार के पेड़ों की वजह से दुनिया भर में मशहूर है और क्वेटा से 133 किलोमीटर की दूरी पर समुद्रतल से 2,449 मीटर की ऊंचाई पर मौजूद है.इस जगह एक संत ख़रवारी बाबा रहा करते थे जिसकी वजह से ये जगह ज़ियारत कहलाती है. जिन्ना का मक़ान या क़ायद-ए-आज़म रेजिडेंसी ज़ियारत से 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है.


जिन्ना की बहन फ़ातिमा ने अपनी किताब 'माय ब्रदर' में लिखा है कि क्वेटा से ज़ियारत जाने का फ़ैसला जिनाह का ख़ुद का फ़ैसला था क्योंकि उनकी सरकारी और ग़ैर-सरकारी व्यस्तता की वजह क्वेटा में भी उन्हें आराम का मौक़ा बिल्कुल नहीं मिल रहा था.विभिन्न एजेंसियों और बहुत से नेताओं की तरफ़ से उन्हें लगातार इन्विटेशन मिल रहे थे कि वो उनकी सभाओं में शामिल हों और लोगों को संबोधित करें.


हालांकि ये बात फिर भी अस्पष्ट है कि जिन्ना को ज़ियारत के बारे में किसने बताया था और वहां जाने की सलाह किसने दी थी.13 से 21 जुलाई: डॉक्टरों की सलाह से बच कर ज़ियारत पहुंचने के बाद भी जिन्ना ने किसी सर्टिफ़ाइड डॉक्टर से इलाज करवाने पर तवज्जो नहीं दी। लेकिन उन्हीं दिनों सूचना मिली कि मशहूर डॉक्टर रियाज़ अली शाह अपने एक मरीज़ को देखने के लिए ज़ियारत आए हुए हैं. फ़ातिमा जिन्ना ने अपने भाई से कहा कि डॉक्टर रियाज़ अली शाह का ज़ियारत में मौजूद होने से फ़ायदा उठाना चाहिए मगर उन्होंने ये कहते हुए इस प्रस्ताव को सख़्ती से मना कर दिया कि उन्हें कोई ज्यादा गंभीर बीमारी नहीं है और अगर सिर्फ उनका पेट भोजन को कुछ अच्छी तरह से पचाने लगे तो वो जल्दी ही दोबारा स्वस्थ हो जायेंगे। फ़ातिमा जिन्ना के अनुसार "वो डॉक्टरों की ऐसी सलाह से हमेशा बचते थे कि क्या करें, क्या खाएं, कितना खाएं, कब सोयें, और कितनी देर आराम करें. इलाज से बचने की उनकी यही पुरानी आदत एक बार फिर उभर कर आती थी."मगर जल्दी ही वो अपनी इस आदत को छोड़ने पर मजबूर हो गए. ज़ियारत पहुंचने के एक सप्ताह के अंदर उनका स्वास्थ्य इतना बिगड़ गया कि उनकी जिंदगी में पहली बार उनका स्वास्थ उनके ख़ुद के लिए परेशानी की वजह बन गया.अब तक उनका ख़्याल था कि वो स्वास्थ्य को अपनी मर्जी के हिसाब से रख सकते हैं मगर 21 जुलाई 1948 को जब उन्हें ज़ियारत पहुंचे हुए सिर्फ़ एक सप्ताह गुज़रा था, उन्होंने ये स्वीकार कर लिया कि अब उन्हें स्वास्थ्य के बारे में ज़्यादा ख़तरा मोल नहीं लेना चाहिए और ये कि अब उन्हें वास्तव में अच्छी डॉक्टरी सलाह की ज़रूरत है।


फ़ातिमा जिन्ना का कहना है कि जैसे ही उन्हें अपने भाई के इस इरादे का पता चला तो उन्होंने उनके प्राइवेट सेक्रेटरी फ़ारुख़ अमीन के ज़रिये कैबिनेट के सेक्रेटरी जनरल चौधरी मोहम्मद अली को संदेश भिजवाया कि वो लाहौर के मशहूर फ़िजीशियन डॉक्टर कर्नल इलाही बख़्श को हवाई जहाज के ज़रिए ज़ियारत भिजवाने का बंदोबस्त करें.23 जुलाई से 29 जुलाई: बम्बई की एक तिजोरी में छिपा राज़डॉक्टर इलाही बख़्श 23 जुलाई 1948 को क्वेटा और फिर वहां से कार से ज़ियारत पहुंचे. दिन भर सफ़र करने के बावजूद उन्हें ज़ियारत पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई और जिन्ना से उनकी मुलाक़ात अगली सुबह ही मुमकिन हो सकी.उन्होंने अपनी किताब में लिखा है कि "जब मैंने उनसे उनकी बीमारी के बारे में बात की तो उनका पूरा ज़ोर इसी बात पर था कि वो बिल्कुल भले चंगे हैं और ये कि उनका पेट ठीक हो जाए तो जल्द ही सामान्य हो जाएंगे। 


मगर सरसरी तौर पर जिन्ना की जांच करने के बाद डॉक्टर इलाही बख़्श इस नतीजे पर पहुंचे कि उनका पेट तो बिल्कुल ठीक है लेकिन उनके सीने और फेफड़ों के बारे में स्थिति संतोषजनक नहीं है.डॉक्टर इलाही बख़्श की सलाह पर अगले दिन क्वेटा के सिविल सर्जन डॉक्टर सिद्दीक़ी और क्लिनिकल पैथोलॉजिस्ट डॉक्टर महमूद जरूरी इक्विपमेंट और सामान के साथ ज़ियारत पहुंच गए.उन्होंने फौरी तौर पर जिन्ना के टेस्ट किये जिनकी रिपोर्ट ने डॉक्टर इलाही बख़्श की उन आशंकाओं को सत्यापित कर दिया कि उन्हें तपेदिक (टी.बी) की बीमारी है.डॉक्टर इलाही बख़्श ने जिन्ना की बीमारी के बारे में सबसे पहले फ़ातिमा जिन्ना को सूचित किया और फिर उन्हीं के कहने पर अपने मरीज़ यानी मोहम्मद अली जिन्ना को भी सूचित कर दिया गया। डॉक्टर इलाही बख़्श लिखते हैं "क़ायद-ए-आज़म ने जिस अंदाज में मेरी बात को सुना, मैं उससे बहुत ही प्रभावित हुआ. "


चौधरी मोहम्मद हुसैन चट्ठा ने अपने एक इंटरव्यू में ज़मीर अहमद मुनीर को बताया कि जब डॉक्टर इलाही बख़्श ने जिन्ना को बताया कि उन्हें तपेदिक की बीमारी है तो जिन्ना ने जवाब दिया "डॉक्टर ये तो मैं 12 साल से जानता हूं मैंने अपनी बीमारी को सिर्फ इसलिए ज़ाहिर नहीं किया था कि हिंदू मेरी मौत का इंतजार ना करने लगें। हिंदुस्तान की जंग-ए-आज़ादी के विषय पर लिखी गई मशहूर किताब 'फ्रीडम एट मिडनाइट' के लेखकों लैरी कॉलिंस और डोमिनिक लैपिएर ने बिल्कुल सही लिखा है कि "अगर अप्रैल 1947 में माउंटबेटन, जवाहरलाल नेहरू या महात्मा गांधी में से किसी को भी इस असामान्य राज का पता चल जाता जो बम्बई के एक मशहूर डॉक्टर जेएएल पटेल के दफ़्तरर की तिजोरी में बहुत ही हिफ़ाज़त से रखा हुआ था, तो शायद हिंदुस्तान का कभी बंटवारा ना होता और आज एशिया के इतिहास का धारा किसी और रुख़ पर बह रही होती."


"ये वो राज़ था जिससे ब्रिटिश सिक्रेट सर्विस भी अनजान थी. ये राज़ जिन्ना के फेफड़ों की एक एक्सरे फिल्म थी, जिसमें उनके फेफड़ों पर टेबल टेनिस की गेंद के बराबर दो बड़े-बड़े धब्बे साफ दिख रहे थे. हर धब्बे के चारों तरफ़ एक बाला-सा था जिससे ये बिल्कुल साफ़ हो जाता था कि तपेदिक की बीमारी जिन्ना के फेफड़ों पर किस तरह आक्रामक रूप में फैल चुकी है. "डॉक्टर पटेल ने जिन्ना के कहने पर उन एक्सरेज़ के बारे में कभी किसी को कुछ नहीं बताया. हालांकि उन्होंने जिन्ना को इलाज और स्वस्थ रहने के लिए ये सलाह ज़रूर दी. उनका कहना था कि इसका इलाज सिर्फ और सिर्फ आराम पर निर्भर है. मगर पाकिस्तान के संस्थापक के पास आराम का वक्त कहां था। जिन्ना के पास समय कम था और काम बहुत ज़्यादा था और वो नियमित इलाज कभी नहीं करा सके.उन्होंने अपनी बीमारी के बारे में अपनी सबसे प्यारी बहन को भी नहीं बताया, यहां तक कि उन्होंने डॉक्टर इलाही बख़्श को भी अपने राज़ से उसी समय सूचित किया जब वो ख़ुद इस नतीजे पर पहुंच चुके थे। माउंटबेटन ने लंबे अरसे बाद लैरी कॉलिंस और डोमिनिक लैपिएर को एक इंटरव्यू में बताया कि सारी ताक़त जिन्ना के हाथ में थी. उन्होंने कहा था, "अगर किसी ने मुझे बताया होता कि वो बहुत कम समय में ही इस दुनिया से चले जाएंगे तो मैं हिंदुस्तान का बंटवारा ना होने देता.ये एकमात्र स्थिति थी की हिंदुस्तान संगठित तौर पर बना रहता. रास्ते का पत्थर सिर्फ मिस्टर थे, दूसरे नेता इतने सख़्त नहीं थे और मुझे यक़ीन है कि कांग्रेस उन लोगों के साथ किसी सुलह पर पहुंच जाती और पाकिस्तान क़यामत तक असतित्व में नहीं आता।


डॉक्टर इलाही बख़्श लिखते हैं: "जब बीमारी का पता चल गया तो मैंने एक तरफ़ इलाज और खाने में कुछ बदलाव किया और दूसरी तरफ लाहौर से डॉक्टर रियाज़ अली शाह, डॉक्टर एसएस आलम और डॉक्टर ग़ुलाम मोहम्मद को टेलिग्राम दिया कि वो ज़रूरी सामान और पोर्टेबल एक्सरे मशीन ले कर फौरन ज़ियारत पहुंचे। 


30 जुलाई: प्रधानमंत्री से मुलाक़ात और जिन्ना का दवा लेने से इनकार


30 जुलाई 1948 को जिन्ना के ये सभी डॉक्टर ज़ियारत पहुंच गए. उस से एक दिन पहले उनकी देखभाल के लिए क्वेटा से एक एक्सपीरियंस नर्स फ़िल्स डिलहम को भी ज़ियारत बुलवाया जा चुका था.


अब जिन्ना का औपचारिक तौर से इलाज शुरू होने की संभावना बन गई थी कि इसी दिन एक ऐसी घटना हुई जिस पर अब तक खामोशी के पर्दे पड़े हुए हैं. जो लोग इस बारे में जानते भी हैं उनका यही कहना है कि इस घटना को अब भी राज़ ही रहने दिया जाए.इस घटना के बारे में सबसे पहले फ़ातिमा ने अपनी किताब 'माई ब्रदर' में लिखा था. उन्होंने ये क़िताब जी अलाना की मदद से लिखी थी। उनकी मौत के बाद इसका मसौदा उन काग़ज़ात में मिला जो अब इस्लामाबाद के नेशनल आर्काइव्स में रखे हुए हैं। इस मसौदे को 1987 में क़ायद-ए-आज़म अकादमी, कराची ने किताब की शक्ल में प्रकाशित किया था मगर इस किताब में से उन पैराग्राफ को हटा दिया गया था जो फ़ातिमा जिन्ना ने 30 जुलाई 1948 को घटी घटना के संदर्भ में लिखे थे.फ़ातिमा जिन्ना ने अपनी इस किताब में लिखा था, "जुलाई के अंत में एक दिन प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान और चौधरी मोहम्मद अली बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक ज़ियारत पहुंच गए. प्रधानमंत्री ने डॉक्टर इलाही बख़्श से पूछा कि जिन्ना की बीमारी के बारे में उन्होंने क्या पता लगाया? डॉक्टर ने कहा कि उन्हें फ़ातिमा जी ने बुलाया है और वो अपने मरीज़ के बारे में सिर्फ उन्हीं को कुछ बता सकते हैं. प्रधानमंत्री ने ज़िद की कि वो प्रधानमंत्री के तौर पर गवर्नर जनरल के स्वास्थ्य के बारे में चिंतित हैं लेकिन तब भी डॉक्टर इलाही बख़्श ने यही कहा कि वो अपने मरीज़ की इजाज़त के बिना किसी को कुछ नहीं बता सकते। 


फ़ातिमा जिन्ना आगे लिखती हैं, "मैं उस समय भाई के पास बैठी हुई थी जब मुझे बताया गया कि प्रधानमंत्री और कैबिनेट के सिक्रेटरी जनरल उनसे मिलना चाहते हैं. मैंने इसकी सूचना भाई को दी तो मुस्कुराए और वो बोले, 'फाती! तुम जानती हो वो यहां क्यों आया है वो देखना चाहता है कि मेरी बीमारी कितनी गंभीर है और ये कि मैं अब कितने दिन जिंदा रहूंगा'.कुछ मिनट बाद उन्होंने अपनी बहन से कहा, "नीचे जाओ… प्रधानमंत्री से कहो मैं उनसे भी मिलूंगा। फ़ातिमा जिन्ना ने भाई से गुजारिश की कि "बहुत देर हो चुकी है, आप उनसे सुबह मुलाक़ात कर लीजियेगा." मगर जिन्ना ने कहा "नहीं... उसे अभी आने दो, वो ख़ुद आख़िर अपनी आंखों से देख ले। अपनी क़िताब वो आगे लिखती हैं, "दोनों की मुलाक़ात आधे घंटे तक चलती रही. जैसे ही लियाक़त अली ख़ान वापस नीचे आए तो मैं ऊपर अपने भाई के पास गई. वो बुरी तरह थके हुए थे और उनका चेहरा उतरा हुआ था. उन्होंने मुझसे फ्रूट जूस मांगा और फिर चौधरी मोहम्मद अली को अंदर बुला लिया जो 15 मिनट तक उनके पास रहे. फिर जब वो दोबारा अकेले हुए तो मैं उनके पास गई. मैंने पूछा कि क्या वो जूस या कॉफी कुछ लेना पसंद करेंगे मगर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. वो किसी गहरी सोच में गुम थे. अब तक रात के खाने का समय हो गया. वो लिखती हैं, "भाई ने मुझसे कहा 'अच्छा होगा कि तुम नीचे चली जाओ और उनके साथ खाना खाओ'."मैंने ज़ोर देकर कहा, 'मैं आप ही के पास बैठूंगी और यहीं पर खाना खा लूंगी'. 'नहीं' भाई ने कहा, 'ये ठीक नहीं है. वो यहां हमारे मेहमान हैं, जाओ और उनके साथ खाना खाओ'."इसके बाद फ़ातिमा जिन्ना लिखती हैं, "खाने की मेज पर मैंने प्रधानमंत्री को बहुत ख़ुशगवार मूड में पाया. वो जोक्स सुना रहे थे और हंसी मज़ाक कर रहे थे जबकि मैं भाई के स्वास्थ्य के लिए डर से कांप रही थी जो ऊपर की मंजिल में बीमारी में बिस्तर पर पड़े हुए थे. खाने के दौरान चौधरी मोहम्मद अली चुपचाप किसी सोच में गुम रहे. खाना ख़त्म होने से पहले मैं ऊपर चली गई. जब मैं कमरे में दाखिल हुई तो भाई मुझे देख कर मुस्कुराए और बोले 'फ़ाती, तुम्हें हिम्मत से काम लेना चाहिए'."वो लिखती हैं, "मैंने अपने आंसुओं को छुपाने की बहुत कोशिश की जो मेरी आंखों में उमड़ आये थे।


17 अक्टूबर 1979 को पाकिस्तान टाइम्स लाहौर में शरीफुद्दीन पीरज़ादा का एक लेख प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था 'द लास्ट डेज़ ऑफ़ द क़ायद-ए-आज़म'। 


इस लेख में उन्होंने मशहूर कानूनविद एमए रहमान के एक पत्र का हवाला दिया. पत्र में एमए रहमान ने उन्हें लिखा था कि डॉक्टर इलाही बख़्श के बेटे हुमायूं ख़ान ने भी उन्हें इस घटना के बारे में बताया था। 


इस लेख के अनुसार "क़ायद-ए-आज़म पर दवा का असर बहुत ही अच्छी तरह से हो रहा था और वो पहले से स्वस्थ हो रहे थे. एक दिन लियाक़त अली ख़ान क़ायद-ए-आज़म से मिलने के लिए ज़ियारत आए. वो उनके साथ लगभग एक घंटा रहे. उसी दौरान दवा खिलाने का समय हो गया लेकिन मेरे पिता अंदर जाकर क़ायद-ए-आज़म को दवा नहीं दे सकते थे क्योंकि अंदर जो मीटिंग हो रही थी वो बहुत ही खुफ़िया थी. इसीलिए वो बाहर इंतजार करते रहे ताकि मुलाक़ात ख़त्म होते ही वो क़ायद-ए-आज़म को दवा खिला सके.जब लियाक़त अली ख़ान कमरे से बाहर निकले तो मेरे पिता फौरन कमरे में दाख़िल हुए और क़ायद-ए-आज़म को दवा खिलाना चाही. उन्होंने देखा के क़ायद-ए-आज़म बहुत ही चिंतित थे और उन पर मायूसी छायी हुई है और उन्होंने दवा खाने से मना कर दिया और कहा कि अब मैं और जिंदा नहीं रहना चाहता. उसके बाद पिता की भरपूर कोशिश और बहुत कहने के बावजूद क़ायद-ए-आज़म ने अपने डॉक्टर का साथ देने से मना कर दिया.। हुमायूं ख़ान ने आगे बताया, "क़ायद-ए-आज़म की मौत के फौरन बाद लियाक़त अली ख़ान ने मेरे पिता को बुलवाया. लियाक़त अली ख़ान ने उनसे पूछा कि उस दिन ज़ियारत में जब मैं कमरे से बाहर निकल आया और आप अंदर गए तो क़ायद-ए-आज़म ने आपसे क्या बात की थी.। मेरे पिता ने लियाक़त अली ख़ान को बहुत यक़ीन दिलाने की कोशिश की कि क़ायद ने आप दोनों के बीच होने वाली बातचीत के बारे में मुझसे बिल्कुल भी कोई बात नहीं की थी सिवाय इसके कि उसके बाद क़ायद ने दवा खानी बंद कर दी थी, लेकिन मेरे पिता के जवाब से लियाक़त अली ख़ान को तसल्ली नहीं हुई। लियाक़त अली ख़ान काफी देर तक मेरे पिता पर ज़ोर बनाने की कोशिश करते रहे. जब उनकी मुलाक़ात ख़त्म हुई और मेरे पिता कमरे से निकलने लगे तो लियाक़त अली ख़ान ने उन्हें वापिस बुलाया और उन्हें चेतावनी दी कि अगर उन्होंने किसी और ज़रिए से इस मुलाक़ात के बारे में कुछ सुना तो उन्हें यानी मेरे पिता को, गंभीर नतीजे भुगतने पड़ेंगे। ये डॉक्टर इलाही बख़्श के बेटे, हुमायूं ख़ान का बयान है जो हम तक एमए रहमान और शरीफुद्दीन पीरज़ादा के ज़रिए से पहुंचा हैं. इसकी सत्यता पर बहस की गुंजाइश हो सकती है क्योंकि खुद डॉक्टर करनल इलाही बख़्श ने अपनी किताब 'क़ायद-ए-आज़म के आखिरी दिन' में इस घटना के बारे में अलग तरह से लिखा है।


इसी घटना के बारे में डॉक्टर इलाही का बयान अलग है


डॉक्टर करनल इलाही बख़्श लिखते हैं, "नीचे उतरा तो प्रधानमंत्री से ड्राइंग रूम में मुलाक़ात हुई. वो उसी दिन मिस्टर मोहम्मद अली के साथ क़ायद-ए-आज़म के स्वास्थ्य के बारे में पूछने के लिए आए थे. उन्होंने बड़ी बेताबी से क़ायद-ए-आज़म की हालत पूछी और इस बात पर संतोष व्यक्त किया कि मरीज़ को अपने डॉक्टर पर विश्वास हैं और इंशाल्लाह इसका उनके स्वास्थ्य पर अच्छा असर पड़ेगा। उन्होंने बहुत ही ज़ोर दे कर कहा कि क़ायद-ए-आज़म की लंबी बीमारी की जड़ का ज़रूर पता लगाया जाए. मैंने उन्हें यक़ीन दिलाया कि क़ायद-ए-आज़म की हालत गंभीर होने के बावजूद उन्हें उम्मीद है कि अगर उन्होंने वो नई दवाई खा ली जो कराची से मंगवाई जा रही हैं तो मुमकिन है वो ठीक हो जाएंगे। बड़ी उम्मीद की बात ये है कि मरीज़ में रोग प्रतिरोध क्षमता बहुत है. प्रधानमंत्री अपने नेता और पुराने दोस्त की बीमारी से बहुत दुःखी थे उनके दुःख से में बहुत प्रभावित हुआ। लेकिन इन दोनों बयानों में सच्चाई किसमें है? इसका पता तो सिर्फ पांच, छह लोगों को ही था जो उस समय मौके पर मौजूद थे. संयोग से उनमें से कोई भी अब जीवित नहीं है। घटना पर भी 72 साल के महीने और साल की धूल जम चुकी है और अब ऐसा कोई स्रोत नहीं बचा जो देश को इस घटना की असलियत को बता सके.। 


31 जुलाई से 12 अगस्त: जिन्ना का पसंदीदा बावर्ची


दो-तीन दिन में जिन्ना की हालत इतनी बेहतर हो गई कि 3 अगस्त को डॉक्टर कर्नल इलाही बख़्श ने उनसे लाहौर जाने के लिए परमिशन भी ले ली। वैसे इसकी वजह ये दिखाई देती है कि कुछ दिन बाद ईद आने वाली थी और डॉक्टर इलाही बख़्श ईद का त्योहार अपने घर वालों के साथ मनाना चाहते थे। 


मगर अभी उन्हें लाहौर पहुंचे एक दिन ही हुआ था कि उन्हें डॉक्टर आलम के साथ अल्ट्रावायलेट ऐपरेटस यानी पराबैंगनी किरणों द्वारा इलाज करने की मशीन ले कर फौरन ज़ियारत आने को कहा गया और 6 अगस्त को वो ये मशीन लेकर ज़ियारत पहुंच गए. डॉक्टर रियाज़ हुसैन शाह ने उन्हें बताया कि उनकी ग़ैर हाज़िरी में जिन्ना बहुत कमज़ोर हो गए और उनका ब्लड प्रेशर बहुत गिर गया था मगर इंजेक्शन लगाने से उनकी हालत कुछ बेहतर हो गई थी.


अगले दिन 7 अगस्त 1948 को ईद-उल-फित्र थी. उसी शाम जिन्ना के इलाज की शुरुआत हुई मगर ये उन्हें सूट नहीं आया और उनके पैरों पर कुछ सूजन आ गई थी.9 अगस्त को डॉक्टरों ने सलाह दी कि ज़ियारत की समुद्रतल से ऊंचाई मरीज़ के लिये अच्छी नहीं और उन्हें क्वेटा ले जाना चाहिए.जिन्ना पहले तो 15 अगस्त से पहले जाने के लिए तैयार नहीं थे क्योंकि इसी साल जून में फ़ैसला हो चुका था कि स्वतंत्रता दिवस 15 के बजाय 14 अगस्त को मनाया जाएगा. लेकिन अपने डॉक्टरों की कहने पर वो 13 अगस्त को क्वेटा जाने के लिये मान गए.जिन्ना के ज़ियारत में रहने के समय की बात है कि डॉक्टर कर्नल इलाही बख़्श ने फ़ातिमा से पूछा, "आपके भाई को कुछ खाने पर कैसे तैयार किया जाए उनकी खास पसंद का कोई खाना बताएं। फ़ातिमा जिन्ना ने बताया कि "बम्बई में उनके यहां एक बावर्ची हुआ करता था जो कुछ ऐसे खाने तैयार करता था कि भाई उनको बड़े शौक़ से खाते थे, लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद वो बावर्ची कहीं चला गया.। 


उन्हें याद था कि वो लायलपुर (मौजूदा फ़ैसलाबाद) का रहने वाला था और कहा कि शायद वहां से उसका कुछ पता मिल सके.ये सुनकर डॉक्टर साहब ने पंजाब सरकार से निवेदन किया कि उस बावर्ची को तलाश करके फौरन ज़ियारत भिजवाया जाए. किसी ना किसी तरह वो बावर्ची मिल गया और उसे फौरन ही ज़ियारत भिजवा दिया गया हालांकि जिन्ना को उसके आने के बारे में कुछ नहीं बताया गया। खाने की मेज पर उन्होंने अपने पसंदीदा खाने देखते हुए हैरानी का इज़हार किया और खुश होकर अच्छी तरह से खाना खा लिया. जिन्ना ने पूछा कि आज खाना किसने बनाया है तो उनकी बहन ने बताया कि पंजाब सरकार ने हमारे बम्बई वाले बावर्ची को तलाश करके यहां भिजवाया है और उसने आपकी पसंद का खाना बनाया है। जिन्ना ने बहन से पूछा कि इस बावर्ची को तलाश करने और यहां भिजवाने का खर्च किसने उठाया है. जब उन्हें बताया गया कि ये काम पंजाब सरकार ने किया है तो जिन्ना ने बावर्ची से संबंधित फाइल मंगवाई और उस पर लिखा के "गवर्नर जनरल की पसंद का बावर्ची और खाना मुहैया कराना सरकार के किसी विभाग का काम नहीं है.खर्च का ब्यौरा तैयार किया जाए ताकि मैं उसे अपनी जेब से अदा कर सकूं." और फिर ऐसा ही हुआ


13 अगस्त से 28 अगस्त: स्वास्थ्य का संभलना और कराची वापसी के लिए तैयार होना। 


जिन्ना ज़ियारत में एक महीने तक रहने के बाद जब 13 अगस्त 1948 की शाम क्वेटा वापस पहुंचे तो उन्होंने अपने डॉक्टरों से कहा, "बहुत अच्छा किया कि आप मुझे यहां ले आए ज़ियारत में मुझे ऐसा महसूस होता था जैसे पिंजरे में बंद हो."


क्वेटा पहुंचने के बाद 16 अगस्त को उनके डॉक्टरों ने एक बार फिर उनके एक्स-रे और दूसरे टेस्ट किए. एक्स-रे की रिपोर्ट से पता चला कि जिन्ना का स्वास्थ पहले से बेहतर हो रहा है और टेस्ट की रिपोर्ट ने भी इस राय की पुष्टि भी की. इसलिए डॉक्टरों ने जिन्ना को व्यस्त रखने के लिए उनको अख़बार पढ़ने की इजाज़त दे दी और उन्हें कुछ दफ्तर की फाइलें निपटाने से भी मना नहीं किया गया.क्वेटा पहुंचने के बाद जिन्ना का स्वास्थ्य कुछ दिनों के लिए इतना संभल गया था कि वो थकान महसूस किए बिना रोज़ाना एक घंटा काम करने लग गए थे. उनका पेट भी बेहतर काम कर रहा था, यहां तक कि एक दिन उन्होंने डॉक्टरों के सलाह के बावजूद हलवा पूरी तैयार करवा कर शौक़ से खाई.कुछ दिन बाद उन्होंने डॉक्टरों की सलाह से सिगरेट पीना भी शुरू कर दी. डॉक्टरों का मानना था कि अगर कोई व्यक्ति सिगरेट का आदी है और वो बीमारी के दौरान सिगरेट मांगे तो ये उसके स्वास्थ्य की तरफ़ लौटने की निशानी होती है.अब डॉक्टरों ने जिन्ना के स्वास्थ्य की और जांच करते हुए उनसे गुज़ारिश की कि क्वेटा से कराची चले जाना चाहिए लेकिन जिन्ना स्ट्रेचर पर लेटे लाचार हालत में गवर्नर जनरल हाऊस नहीं जाना चाहते थे.उनसे बार-बार कहा गया तो वो इस शर्त पर कराची जाने पर तैयार हो गए कि वो गवर्नर जनरल हाऊस में नहीं बल्कि मलेर में नवाब ऑफ़ बहावलपुर के घर में रहेंगे. उन दिनों नवाब ऑफ बहावलपुर ब्रिटेन में रहते थे.


जिन्ना से कहा गया कि उनके मकान में रहने के लिए उनको एक हक लिखना पड़ेगा तो उनके उसूलों ने उन्हें ये पत्र लिखने की इजाज़त नहीं दी. वो नहीं चाहते थे कि वो देश के गवर्नर जनरल होते हुए अपने देश में शामिल एक रियासत के नवाब से किसी तरह की सुविधा हासिल करने के लिए औपचारिक इजाज़त हासिल करें। 


29 अगस्त: "मैं अपना काम पूरा कर चूका हूँ"


29 अगस्त 1948 को डॉक्टर इलाही बख़्श ने जिन्ना की एक बार फिर जांच की। 


वो लिखते हैं: "क़ायद- ए-आज़म की जांच करने के बाद मैंने उम्मीद की कि जिस देश को आप अस्तित्व में लाये हैं उसे पूरी तरह मज़बूत और स्थिर करने के लिए भी देर तक ज़िंदा रहें. मैंने सोचा भी नहीं था कि मेरे जज़्बात से वो दुःखी हो जायेंगे. उनके ये शब्द और उनका मायूसी और निराशा भरा लहज़ा मैं कभी नहीं भूल सकता."जिन्ना ने डॉक्टर इलाही बख्श को कहा, "आपको याद है, जब आप पहली बार ज़ियारत आये थे तो मैं ज़िंदा रहना चाहता था लेकिन अब मेरा मरना जीना बराबर है। 


डॉक्टर इलाही बख़्श लिखते हैं कि "ये शब्द बोलते हुए उनकी आँखों में आंसू आ गए. एक ऐसे व्यक्ति को रोटा देख कर, जिसे जज़्बात से बिल्कुल दूर और फौलाद की तरह सख़्त समझा जाता था, डॉक्टर इलाही बख़्श दंग रह गए. जिन्ना उस समय पहले के मुक़ाबले स्वस्थ थे, इसलिए जिन्ना के दब्बू स्वभाव से उन्हें और भी हैरानी हुई. उन्होंने वजह पूछी तो जिन्ना ने कहा, 'मैं अपना काम पूरा कर चुका हूँ'। डॉक्टर इलाही बख़्श लिखते हैं, "उस जवाब से मेरी उलझन और बढ़ गई और सोचा कि वो असल बात छुपा कर रखना चाहते हैं और जो वजह उन्होंने बताई है वो यूं ही टालने के लिए है. मैं सोचता रहता था कि क्या आज से 5 सप्ताह पहले उनका काम पूरा नहीं हुआ था और अब एकदम से पूरा हो गया है. मैं ये महसूस किए बिना ना रह सका कि कोई बात ज़रूर है जिसने उनकी जीने की इच्छा मिटा दी है। इसी घटना के बारे में फ़ातिमा जिन्ना ने भी अपनी किताब में लिखा है, मगर उन्होंने इससे कुछ अलग शब्दों में इसके बारे में लिखा है.वो लिखती हैं, "अगस्त के आखिरी दिनों में जिन्ना पर अचानक मायूसी छा गई. एक दिन मेरी आंखों में ग़ौर से देखते हुए उन्होंने कहा 'फ़ाती ... अब मुझे जिंदा रहने से कोई दिलचस्पी नहीं. जितना जल्दी चला जाऊं उतना ही अच्छा है'। ये बदशगुनि के शब्द थे. मैं काँप उठी, जैसे मैंने बिजली के नंगे तार को छू लिया हो. फिर भी मैंने सब्र और हिम्मत से काम लिया और कहा: जिन ! आप जल्दी ही अच्छे हो जाएंगे. डॉक्टरों को पूरी उम्मीद है। मेरी ये बात सुनकर मुस्कुराए. उस मुस्कराहट में मायूसी छुपी थी. उन्होंने कहा: नहीं ... अब मैं जिंदा रहना नहीं चाहता."


एक सितंबर से 10 सितंबर: हेमरेज और कराची वापसी की तैयारी


एक सितंबर 1948 को जिन्ना ने ज़ियारत से उस समय के पाकिस्तान नेवी के प्रमुख जनरल डगलस ग्रेसी के नाम एक पत्र लिखा जो बदकिस्मती से उनकी आख़िरी तहरीर साबित हुई। उस पत्र में उन्होंने लिखा, "मैंने आपके पत्र की एक कॉपी क़ायद-ए-आज़म रिलीफ फंड के उपाध्यक्ष को भेज दी है और मैंने उस फंड में से 3 लाख की मदद की मंजूरी दे दी है जो थल प्रोजेक्ट के मुहाजिर फौजियों के विकास के लिए है। 


उसी दिन डॉक्टर इलाही बख़्श ने मायूसी भरे लहजे में श्रीमती फ़ातिमा जिन्ना को बताया कि उनके भाई को हेमरेज हो गया है और उन्हें फौरन कराची ले जाना चाहिए क्योंकि क्वेटा की ऊंचाई उनके लिए ठीक नहीं है. अगले आने वाले दिनों में जिन्ना का स्वास्थ्य और बिगड़ता चला गया. पांच सितंबर को डॉक्टरों को पता चला कि उन पर निमोनिया का अटैक भी हुआ है। डॉक्टर इलाही बख़्श ने अमरीका में पाकिस्तान के राजदूत मिर्ज़ा अबुल हसन असफ़हानी को लिखा कि वो जिन्ना के लिए कुछ डॉक्टरों को भिजवा दें. उन डॉक्टरों के नाम डॉक्टर फैयाज अली शाह ने सुझाये थे। उसी दौरान डॉक्टर इलाही बख़्श ने कराची से डॉक्टर मिस्त्री को भी क्वेटा बुलवा लिया मगर इसके बावजूद जिन्ना के स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ। 


ये उन्हीं दिनों की बात है जब जिन्ना के सेक्रेटरी फ़ारुख़ अमीन ने जिन्ना से किसी की मुलाक़ात करवाना चाही तो डॉक्टर इलाही बख़्श ने उनके कई बार कहने पर भी ये इजाज़त देने से मना कर दिया. डॉक्टर इलाही बख़्श ने लिखा है कि "उन्हें मिलने वाले का नाम नहीं बताया गया था हालांकि उस समय के हैदराबाद के प्रधानमंत्री मीर लायक़ अली ने अपनी किताब 'ट्रेजडी ऑफ हैदराबाद' के एक चैप्टर में जिसका शीर्षक 'जिन्ना ऑन डेथ बेड' है, में लिखा है कि ये मिलने वाले वो खुद थे हालांकि कई बार कहने पर भी मुलाक़ात करने में कामयाब नहीं हो सके। 10 सितंबर 1948 को इलाही बख़्श ने फ़ातिमा को सूचित किया कि अब जिन्ना के जिंदा बचने की कोई उम्मीद बाकी नहीं रही और ये कि अब वो सिर्फ कुछ दिनों के मेहमान हैं। शायद उसी दिन जिन्ना पर बेहोशी छा गई. उस बेहोशी में उनकी ज़ुबान से लगातार शब्द निकल रहे थे. वो बड़बड़ा रहे थे, "कश्मीर... उन्हें फ़ैसला करने का हक़ दो... आइन (संविधान)... मैं उसे मुकम्मल (पूरा) करूंगा ... बहुत जल्द... मुहाजिरीन..... उन्हें हर मुमकिन... मदद दो.... पाकिस्तान..."11 सितंबर: दो घंटों में क्वेटा से कराची, दो घंटों में एयरपोर्ट से रेसीडेंसी तक11 सितंबर 1948 को जिन्ना को स्ट्रेचर पर डालकर उनके विशेष विमान वाइकिंग्स तक पहुंचा दिया गया. जब उन्हें विमान तक ले जाया जा रहा था तो स्टाफ़ ने उन्हें सलामी दी और फिर सब ये देख कर हैरान रह गए कि जिन्ना ने इस हालत के बावजूद फ़ौरन ही उनका जवाब दिया। उनके हाथ की हरकत से महसूस होता था कि उन्हें मौत के बिस्तर पर भी तौर तरीकों का अहसास था। 


क्वेटा से कराची तक की यात्रा 2 घंटे में पूरी हुई. इस दौरान जिन्ना बड़े बेचैन रहे. उन्हें बार-बार ऑक्सीजन दी जाती रही ये फर्ज़ कभी फ़ातिमा जिन्ना और कभी डॉक्टर इलाही बख़्श निभाते रहे। 


डॉक्टर मिस्त्री, नर्स डेलहम, नेवल ए.डी.सी लेफ़्टिनेंट मज़हर अहमद और जिन्ना के प्राइवेट सेक्रेट्री फ़ारुख़ अमीन इस विमान में सवार थे। विमान जिन्ना को लेकर शाम के सवा चार बजे मारी पुर के एयरपोर्ट पर उतरा. जिन्ना के निर्देश पर उन्हें लेने के लिए आने वालों में ना सरकार का कोई बड़ा व्यक्ति मौजूद था, ना ही जिला प्रशासन को उनके आने के बारे में कोई सूचना थी। 


एयरपोर्ट पर उनका स्वागत करने वालों में गवर्नर जनरल के मिलिट्री सेक्रेटरी लेफ्टिनेंट कर्नल जैफरी के अलावा और कोई भी नहीं था। गवर्नर जनरल के स्टाफ़ ने उन्हें स्ट्रेचर पर डालकर फौजी एंबुलेंस में लेटाया. फ़ातिमा जिन्ना और फ़िल्स डेलहम उनके साथ बैठ गई जबकि डॉक्टर इलाही बख़्श , डॉक्टर मिस्त्री और कर्नल जैफ्री जिनाह की कैडिलैक कार में सवार हो गए। जिन्ना की एंबुलेंस ने अभी सिर्फ 4 मील की दूरी तय की होगी कि उसका इंजन, पेट्रोल ख़त्म होने की वजह से एक झटके के साथ बंद हो गया. इसी के साथ एंबुलेंस के पीछे-पीछे आने वाली कैडिलैक कार, सामान वाला ट्रक और दूसरी गाड़ियां भी रुक गई। क़ायद-ए-आज़म की हालत इस क़ाबिल नहीं थी कि रास्ते में बिना वजह एक क्षण की भी देरी की जाती. ड्राइवर 20 मिनट तक इंजन को ठीक करने की कोशिश करता रहा. अंत में फ़ातिमा जिन्ना के कहने पर मिलिट्री सेक्रेटरी अपनी कार में एक और एंबुलेंस लेने के लिए रवाना हो गए और डॉक्टर मिस्त्री भी उनके साथ थे। इधर एंबुलेंस में बहुत ही उमस थी. सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था. इस बेचैनी से भी बढ़ कर वो सैंकड़ों मक्खियां थी जो जिन्ना के चेहरे पर मंडरा रही थीं और उनमें उन्हें उड़ाने की हिम्मत तक नहीं थी। फ़ातिमा जिन्ना और सिस्टर डेलहम बारी-बारी उन्हें गत्ते के एक टुकड़े से पंखा झूलती रही. हर लम्हा बड़ी मुश्किल में गुज़र रहा था। कर्नल नवेल और डॉक्टर मिस्त्री को गए हुए बड़ी देर हो गई थी लेकिन ना फौजी एंबुलेंस का इंजन ठीक हुआ और ना कोई दूसरा इंतजाम हो सका। 


डॉक्टर इलाही बख्श और डॉक्टर रियाज़ बार-बार अपने क़ायद की नब्ज़ देखते थे जो पहले के मुक़ाबले डूबती जा रही थी. जिन्ना को एंबुलेंस से कार में शिफ्ट करना भी मुमकिन नहीं था क्योंकि स्ट्रेचर कार में रखा नहीं जा सकता था और खुद जिन्ना में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो कार में बैठ या लेट सकते। 




इस घटना पर हैरान करने वाली बात ये है कि राजधानी में किसी ने ये जानने की कोशिश भी नहीं की कि सवा चार बजे एयरपोर्ट पर उतरने के बावजूद अभी तक क़ायद-ए-आज़म गवर्नर जनरल हाऊस क्यों नहीं पहुंचे, उनका क़ाफ़िला कहां है और उनकी तबीयत कैसी है। कुछ लोग कहते हैं कि जिन्ना के कराची आने के बारे में राज़ रखा गया था लेकिन क्या वास्तव में सरकार के उच्च पदाधिकारी उनके आने से बेखबर थे?क्या किसी को ये भी खबर नहीं थी कि उसी सुबह गवर्नर जनरल का विशेष विमान क्वेटा भेजा गया है और शाम में किसी भी समय वो राजधानी में आ सकते हैं?जानकार बताते हैं कि 4 सितंबर 1948 को जब कैबिनेट के सेक्रेटरी जनरल चौधरी मोहम्मद अली गवर्नर जनरल की ख़राब स्वास्थ्य देखकर कराची वापस पहुंचे थे तो उसी शाम प्रधानमंत्री हाऊस में कैबिनेट का आपातकालीन सत्र बुलाया गया था.ये नामुमकिन है कि उस सत्र में जिन्ना की बीमारी पर बहस ना हुई हो। 

इसके बाद जब मीर लायक़ अली गवर्नर जनरल से मिले बिना कराची वापस लौट आए तो उन्होंने गुलाम मोहम्मद के रेजिडेंस पर लियाक़त अली ख़ान, चौधरी मोहम्मद अली और सर ज़फ़रउल्लाह ख़ान को जिन्ना की बहुत ही गंभीर हालत के बारे में सूचित किया और मीर लायक़ अली के अनुसार "सभी लोग हैरान रह गए थे। इस पृष्ठभूमि में जिन्ना के कराची आगमन से सरकार की बेरुखी और बेख़बरी तस्वीर के किस रुख़ की निशानदेही करती है? ये सवाल आज भी चिंता का विषय है। पाकिस्तान में भारत के पहले हाई कमिश्नर श्री प्रकाश ने अपनी किताब 'पाकिस्तान: क़याम और इब्तिदाई हालात' में भी इस घटना का उल्लेख किया है. उन्होंने लिखा है कि, "उन दिनों स्थानीय रेड क्रॉस के इंचार्ज जमशेद मेहता थे जिनकी इज़्ज़त कराची का हर व्यक्ति करता था. बाद में उन्होंने मुझे बताया कि मुझे शाम को संदेश मिला कि एक आदमी बहुत बीमार है। क्या आप उसके लिए एंबुलेंस भेज सकते हैं? ये घटना साढ़े पांच बजे शाम की है। कर्नल नवेल्ज़ और डॉक्टर मिस्त्री एक दूसरी एंबुलेंस लेकर वापस आए. अंदाजा किया जा सकता है कि ये वही एम्बुलेंस होगी जिसका ज़िक्र श्री प्रकाश ने किया है। जिन्ना को स्ट्रेचर पर डाल कर उस एंबुलेंस में शिफ्ट किया गया और इस तरह शाम छह बजकर दस मिनट पर वो गवर्नर जनरल हाऊस पहुंचे.एयरपोर्ट से गवर्नर हाउस तक का 9 मील का रास्ता जो ज्यादा से ज्यादा 20 मिनट में तय हो जाना चाहिए था लगभग 2 घंटे में तय हुआ. यानी दो घंटे क्वेटा से करांची तक और दो घंटे एयरपोर्ट से गवर्नर जनरल हाऊस तक। ये मुश्किलों से भरा सफ़र जिन्ना ने ऐसी स्थिति में किया कि हमारे इतिहास में इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती है.


श्री प्रकाश ने अपनी किताब में लिखा है कि, "मिस्टर जिन्ना की मौत के समय फ़्रांसिसी एम्बेसी में कॉकटेल पार्टी हो रही थी. मैंने उस पार्टी में नवाबज़ादा लियाक़त अली ख़ान से मिस्टर जिन्ना के आने का ज़िक्र किया तो उन्होंने कहा मिस्टर जिन्ना सादा मिजाज़ आदमी, इसलिए उन्होंने इसको पसंद नहीं किया उनके आने पर हंगामा हो। 


गवर्नर जनरल हाऊस पहुंचने के बाद जिन्ना सिर्फ सवा चार घंटे जिंदा रहे और इस दौरान वो लगभग बेहोशी में रहे."डॉक्टरों ने उन्हें ताक़त का एक इंजेक्शन लगाया और डॉक्टर इलाही बख़्श के अनुसार जब उन्होंने होश में आने पर जिन्ना से कहा कि वो जल्द ही ठीक हो जाएंगे तो उन्होंने आराम से कहा, "नहीं... मैं जिंदा नहीं रहूंगा। डॉक्टर इलाही बख़्श के अनुसार ये क़ायद-ए-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना के अंतिम शब्द थे। डॉक्टर रियाज़ अली शाह ने लिखा है कि जिन्ना के अंतिम शब्द "अल्लाह .... पाकिस्तान" थे। जबकि फ़ातिमा जिन्ना 'माई ब्रादर' में लिखती हैं, "जिन्ना ने दो घंटे सकून की नींद के बाद अपनी आंखें खोली, सर और आंखों से मुझे अपने क़रीब बुलाया और मेरे साथ बात करने की आखिरी कोशिश की उनके लबों से सरगोशी में निकला, "फ़ाती.... खुदा हाफ़िज ....ला इलाहा इल्लल्लाह मोहम्मदु रसूलुल्लाह। फिर उनका सर दाएं तरफ को आहिस्ता से लुढ़क गया और उनकी आँखें बंद हो। 


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